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सूचित करने की यह एक लाक्षणिक रीति है | संस्कृत काव्यशास्त्र के अनुसार यह आक्षेप अलंकार है, लेकिन ऐसी पहचान के बिना भी हम इसके प्रभाव का अनुभव कर सकते हैं | कवि ने 'अलम्' (बस हो गया) और 'अधिक क्या कहूं' इस प्रकार की वाक्छटाएं मानों कथन की अवधि दिखाने के लिये बारबार प्रयुक्त की हैं।
पदपुनरावृत्ति इस रचना में बारबार दिखाई देती एक उक्तिछटा है । कुछ उदाहरण पहले आ चूके हैं | यहाँ एक विशेष उदाहरण देखें।
शमोऽद्भुतोऽदभुतं रूपं सर्वात्मसु कृपाद्भुता । सर्वादभुतनिधीशाय तुभ्यं भगवते नमः ।। १०.८
'मधुराष्टक' की वाक्छटा की मस्ती में जो मग्न हुए हैं उनके मन का यह 'अद्भुत' लीला अवश्य हरण करेगी ।
क्वचित् आंशिक परिवर्तनवाली पदपुनरावृत्ति भी प्रभावोत्पादक वाक्छटा का निर्माण करती है । जैसे
तेन स्यां नाथवान् तस्मै स्पृहयेयं समाहितः । ... ततः कृतार्थो भूयासं, भवेयं तस्य किङ्करः ।। ९.५.
वीतरागदेवके साथ अनेकविध, अनेकरूपी संबंध की अभिलाषा यहाँ अभिव्यक्त हुई है । उस में प्रत्येक चरण में 'तद्' (उस) के विविध रूप प्रयुक्त किये गये हैं यह लक्षणीय है । 'तेन' (उससे), 'तस्मै' (उसके प्रति), 'ततः' (उसके द्वारा), 'तस्य' (उसका) पद एक ही लेकिन विभक्तिरूप विभिन्न | 'तद्' हमारे चित्त में सतत टकराता है।
क्वचित् एक ही शब्द को अलग अर्थछाया देकर उक्तिवैचित्र्य उत्पन्न किया है । 'क्वाहं पशोरपि पशुः' (कहाँ मैं पशुओं में पशु) (१.७) में ‘पशु' शब्द अबुधता के पर्यायरूप में है । पशुओं में पशु माने अत्यन्त निम्न स्तर का पशु, बिलकुल जड़ । ‘पशुओं में पशु' इस उक्ति की एक अनोखी चोट है।
व्यंग-व्यंग्यप्रधान कुछ उक्तिछटाएं भी लक्षणीय हैं । जैसे कि "तुम्हारा भी प्रतिपक्ष है और वह भी कोप से विक्षुब्ध है ऐसी किंवदन्ती
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