Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 44
________________ स्वराष्ट्र-परराष्ट्रेभ्यो, यत् क्षुद्रोपद्रवा द्रुतम् । विद्रवन्ति त्वत्प्रभावात, सिंहनादादिव द्विपाः ॥९॥ राष्ट्रीय संकट, शत्रु राष्ट्रों-से उपद्रव और जो, सब आपके सुप्रतापसे संताप ये मिटते प्रभो ! ! दुर्धर्ष इक वनराजकी सुन गर्जना भीषण कभी स्वच्छन्द वनमें विचरते गजराज ज्यूं नठते सभी ।। ९ ।। यत्क्षीयते च दुर्भिक्षं, क्षितौ विहरति त्वयि । सर्वाद्भुतप्रभावाढये, जङ्गमे कल्पपादपे ॥१०॥ सबसे अधिक महिमानिलय तू भूवलय पर विहरता था सर्वलोकोत्तम व जगम कल्पवृक्ष-सद्दश, तदा । सूखा न अपना क्रूर पंजा अवनि पर फैला सके होती सुवृष्टि रहे, मधुर अरु धान्य भी बहु नीपजे ।। १० ।। यन्मूर्ध्नः पश्चिमे भागे, जितमार्तण्डमण्डलम्। मा भूद् वपुर्दुरालोक - मितीवोत्पिण्डितं मह : ||११|| तुज शीर्षके पीछे विराजा पुंज ऊर्जाका विभो ! उद्दीप्त सोहे सूर्य-मण्डलसे अधिक वह क्या अहो ! । जाज्वल्यमान स्वरूप तेरा नहि अगोचर हो अतः तेरा अलौकिक तेज पिण्डित बन गया मानो स्वतः । ।। ११।। स एष योगसाम्राज्य - महिमा विश्वविश्रुतः । कर्मक्षयोत्थो भगवन् ! कस्य नाश्चर्यकारणम् ? || १२ ॥ साम्राज्य महिमावंत यह तुज योगका जिनराज हे ! विख्यात सारे जगतमें है जगत के शिरताज हे ! | कर खतम कर्मोंको उपार्जन यह किया साम्राज्य जो भगवंत हे ! तुमने, किसे आश्चर्यमुग्ध करे न वो ?२ || १२ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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