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अनन्तकालप्रचित - मनन्तमपि सर्वथा । त्वत्तो नाऽन्यः कर्मकक्ष - मुन्मूलयति मूलतः ॥ १३ ॥ संसारमें भमते अनादी कालसे संचित किये कर्मो अनंत भदंत ! उनका अंत करनेके लिये । तुम बिन नहीं जिनराज ! जगमें अन्य कोई भी सही सक्षम अहो ! प्रभुता तुम्हारी बस अनूठी है यही ।। १३ ।। तथोपाये प्रवृत्तस्त्वं, क्रियासमभिहारतः । यथाऽनिच्छन्नुपेयस्य, परां श्रियमशिश्रियः ॥ १४ ॥ रचते उपक्रम कर्मको तुम खतम करनेका विभो ! बनकर परम निरपेक्ष जिनवर ! मोक्ष ऊपर भी अहो! । आश्चर्य तब शिवसुन्दरी वरती तुम्हें स्वयमेव तो है यह क्रिया-व्यतिहार अपने आप में बेजोड तो ।। १४ ।। मैत्री पवित्रपात्राय, मुदितामोदशालिने । कृपोपेक्षाप्रतीक्ष्याय, तुभ्यं योगात्मने नमः ॥१५॥ तू विश्वमैत्री-भावका पावन-परम प्रभु ! पात्र हे ! आनन्ददायक तू परम-आनन्द-सिंचित-गात्र हे ! कारुण्य अरु माध्यस्थ्यका तू धाम भी इकमात्र हे ! योगात्मता यह आपकी अनुपम, नमन मम लाख हे! || १५।।
इति कर्मक्षयजातिशयस्तवः ।।
१. न्यायी सदाचारी नृपतिके राज्यमें ना टिक सके
जैसे अनीति, ईतियां वैसे नभो ! तुज राज्यमें ।। पाठां. ।। २. आश्चर्यमुग्ध किसे न करता आपका भगवंत ! वो ? || पाठां. ।।
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