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तृतीयः प्रकाश: ॥
सर्वाभिमुख्यतो नाथ ! तीर्थकृन्नामकर्मजात्। सर्वथा सम्मुखीनस्त्व - मानन्दयसि यत् प्रजाः ॥१॥ जिन-नामकर्म-प्रभाव-से 'सर्वाभिमुखता'-नामसे कल्याणमैत्री विश्वकी प्रभु ! प्राप्त कर ली आपने । अब भव्य अभिमुख जो बने उनका परम हित साधकर आनन्ददायक आप सबके बन गये आनन्दमय ! || १ || यद् योजनप्रमाणेऽपि, धर्मदेशनसद्मनि । सम्मान्ति कोटिशस्तिर्यग् - नृ-देवाः सपरिच्छदाः ॥ २ ॥ तेषामेव स्वस्वभाषा - परिणाममनोहरम् । अप्येकरूपं वचनं, यत्ते धर्मावबोधकृत् ॥३॥ है देशनाकी भूमि योजन-मात्रकी तो भी विभो ! उसमें समाते कोटि-कोटी नर अमर-पशुगण अहो! ||२|| निज-मातृभाषामें समज लेते सभी वे आपका सद्धर्मबोधक अर्धमागध वचन, नाशक पापका ।। ३ ।।
साग्रेऽपि योजनशते, पूर्वोत्पन्ना गदाम्बुदाः । यदञ्जसा विलीयन्ते, त्वद्विहारानिलोर्मिभिः ॥ ४॥ हे परम-करुणाकर ! विचरते आप जिस धरती उपर निस्तार कर संसार से उपकार करते भविक पर | योजन सवासौ में वहां चहुं ओर बसते लोगके सब रोग मिट जाते स्वयं सामर्थ्यसे तुज योगके । ।। ४ ।।
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