Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 40
________________ जिनवर स्वयं सुन्दर, सलोनी मूर्ति उनकी भी बनी प्रतिबिम्ब दर्पणमें पडे उसका, अजब शोभा बनी। प्रतिबिम्ब जैसा रूप मनभर आपका लोभावना प्रस्वेद उस से भी झरे यह कल्पना भी शक्य ना ।। ४ ।। न केवल रागमुक्तं, वीतराग ! मनस्तव | वपुःस्थितं रक्तमपि, क्षीरधारासहोदरम् ॥५॥ अनगिनत अतिशय से अलंकृत अतुलबल अरिहंत हे ! नहि राग तेरे चित्त में टिक पा सका भगवंत हे ! टिकता भी क्यों कर ? क्योंकि करुणामय ! तुम्हारे देह में जो रक्त बहता दूध-सा वह भी अखिल-जग-नेह से ।। ५।। जगद्विलक्षणं किं वा, तवाऽन्यद् वक्तुमीश्महे ? | यदविस्रमबीभत्सं, शुभ्रं मांसमपि प्रभो! ॥६॥ दुनिया की रस्मों से विलक्षण बात मालिक ! आपकी कितनी कहुं ? कैसे कहुं ? क्षमता न मेरी अमाप-की । फिर भी कहुं इक बात निरुपम-रूपमय-तुझ-अंग में जो मांस, वह भी शुभ्र-सुरभित-शुभ-अलौकिक रंग में ।।६।। जलस्थलसमुदभूताः, सन्त्यज्य सुमनःस्रजः । तव निःश्वाससौरभ्य - मनुयान्ति मधुव्रताः ॥ ७॥ जलमें तथा स्थलमें खिले फूलों निराली भांतिके बट मोगरा अरु केतकी, जासुल, कमल बहु जातिके । मधुकर-निकर फरके न पर उनके निकट अब तो अहो ! निःश्वासमें तेरे सुवास भरी अधिक क्यों कि प्रभो ! ।। ७ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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