Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 38
________________ क्वाऽहं पशोरपि पशु र्वीतरागस्तवः क्व च ? | उत्तितीर्घररण्यानी, पद्भ्यां पडरिवाऽस्म्यतः ॥७॥ पशु-दृष्टिमें भी पशु सदृश मतिमन्द मूरख मैं कहां? त्रिभुवन-तिलक निद्वन्द्व विभुकी और स्तवना भी कहां? | अति विकट-अटवी को बिना पग पार करने जा रहा - उस पंगुकी हालत जुटा ली है विभो ! मैंने अहा ! ।। तथापि श्रद्धामुग्धोऽहं, नोपालभ्यः स्खलन्नपि । विशृङ्खलापि वाग्वृत्ति : श्रद्दधानस्य शोभते ॥८॥ आस्था अतूट तथापि मैंने कूट कर दिलमें भरी अब आपकी स्तुतिमें कदाचित् स्खलन हो या गडबडी कारुण्यमय ! नाराज ना होना परंतु मुझ उपर श्रद्धालु बालकका न सोहे क्या वचन स्खलना सभर? ||८|| इति प्रस्तावनास्तवः ।। C -ML PAT श्री हेमचंद्राचार्य राजा कुमारपाळ १. शुद्ध आतम. पाठां । २. जीवों को मिले. पाठां. । ३. नर जन्मका. पाठां । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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