Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 36
________________ ऽहम ॥ नमो नमः श्रीगुरुनेमिसूरये ।। कलिकाल सर्वज्ञ प्रभु श्री हेमचन्द्राचार्य विरचित वीतरागस्तवः ॥ (विजय शीलचन्द्रसूरि विरचित 'हिन्दी' पद्यानुवाद सहितः) । प्रथमः प्रकाश: ॥ यः परात्मा परं ज्योति :, परमः परमेष्ठिनाम् । आदित्यवर्णं तमसः, परस्तादामनन्ति यम् ॥१॥ जो परमज्योतिस्वरूप परमातम परम-परमेष्ठिमें तेजोवलय अनुपम परन्तु सूर्य-सम कवि-दृष्टिमें । है गहन अंधारा भरा जीवोंकी आन्तर-सृष्टिमें जो पार उसके जा विराजा योगियोंकी दृष्टिमें ॥१॥ सर्वे येनोदमूल्यन्त, समूलाः क्लेश-पादपाः । मू| यस्मै नमस्यन्ति, सुरा-सुर-नरेश्वराः ॥२॥ जडमूल से सब क्लेश-वृक्षों का समुन्मूलन किया जिनने अतुल-बल-वीर्यसे चिद्रूप प्रगटाया दिया । देवेन्द्र, फिर असुरेन्द्र और नरेन्द्र भी नित चरणमें वन्दन करे शिरसा, चहे रहना जिन्होंके शरणमें ।।२।। प्रावर्त्तन्त यतो विद्याः, पुरुषार्थप्रसाधिकाः । यस्य ज्ञानं भवद्-भावि- भूतभावावभासकृत् ||३|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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