Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 35
________________ लेकर क्या विवेकी लोग जीते हैं ? (६.२) अर्थात् अगर इस प्रकार की किंवदन्ती हो तो विवेकी पुरुषों को डूब मरना चाहिये । इसका अर्थ यह है कि यह किंवदन्ती झूठी है, वीतरागदेव का कोई प्रतिपक्ष हो ही नहीं सकता तथा विवेकी पुरुषों को चाहिये कि इसका खण्डन करें। कर्मापेक्षा रखनेवाले ईश्वर की कविने 'शिखंडी (नपुंसक) जैसे भारी शब्द का प्रयोग करके सराहना की है यह हम पहले देख चके हैं। लेकिन जगत्कर्ता ईश्वर में माननेवालों का कविने जिन शब्दों में उपहास किया है यह बात कवि को कैसी स्फूर्तिमंत एवं प्रहारात्मक अभिव्यक्ति भी सिद्ध है इस की हमें नूतन प्रतीति कराती है | खपुष्पप्रायमुत्प्रेक्ष्य किञ्चिन्मानं प्रकल्प्य च । सम्मान्ति देहे गेहे वा न गेहेनर्दिनः परे ।। ६.९ “आकाशपुष्प समान किसी वस्तु की संभावना करके तथा किसी प्रमाण की कल्पना करके घर में गर्जन करनेवाले अन्य मतवादी देह में या गेह में - शरीर में या घर में फूले नहीं समाते । 'गेहेनर्दि' शब्द एवं 'देह में या घर में नहीं समाना' यह रूढिप्रयोग कैसा ताजगीपूर्ण और सबल, सचोट है ! वीतरागदेव विषयक इस रचना में विविध युक्तियों से रसत्व एवं काव्यत्व सिद्ध करने में हेमचन्द्राचार्य की उज्ज्वल कविप्रतिभा का . निदर्शन है । स्तोत्रकाव्य की प्रदीर्घ परंपरा में इस रचना का स्थान कहाँ है तथा उस पर परंपरा का कितना प्रभाव है यह जाँच का एक अलग पहलू है | यहाँ तो हम रचना के रसत्व तथा काव्यत्व में अवगाहन करने के प्रसन्नकर अनुभव से कृतार्थ हों यही उपक्रम है। संदर्भ : १. कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य विरचित वीतरागस्तव (सविवेचन सकाव्यानुवाद), भगवानदास मनसुखभाई महेता, १९६५। २. हेमसमीक्षा, मधुसूदन चिमनलाल मोदी, १९४२. ३. दर्शन अने चिंतन भा.१, पंडित सुखलालजी, १९५७ - 'स्तुतिकार मातृचेट अने एमनुं अध्यर्द्धशतक' (इसमें इस स्तोत्रका 'वीतराग स्तव' पर प्रभाव दिखाया गया है। PS Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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