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उत्प्रेक्षालंकार हैं तथा चैत्यवृक्ष के आनन्द के भाव को मूर्त करनेवाले चित्र हैं । इस श्लोक की स्वरव्यंजनरमणा सविशेष ध्यानार्ह है - प्रथम पंक्ति में 'न', 'व', 'ल', 'र' इन व्यंजनों के और 'इ', 'ऐ' इन स्वरों के और द्वितीय पंक्ति में 'ऐ' और 'औ' स्वरों के कितने आवर्तन हैं वह देखिये | इस स्वरव्यंजनरमणा में मानों अशोकवृक्ष गा रहा हो ऐसा सुनाई देता है, नृत्य करता हो ऐसा अनुभव होता है । इस प्रकार यह श्लोक काव्यकला के उत्कर्ष का एक सुंदर उदाहरण है |
तवेन्दुधामधवला चकास्ति चमरावली । हंसालिरिव वक्त्राब्जपरिचर्यापरायणः ।। ५.४
यहाँ उपमा रूपक का रमणीय संश्लेष है : हंसपंक्ति के समान चमरों (उपमा) मुखरूपी कमल (रूपक) की परिचर्या करते हैं, लेकिन मजे की बात तो यह है कि कवि ने यहाँ अलंकार के उपर अलंकार चढाया है | हंसपंक्ति के समान चमरावली को चन्द्रप्रकाश के समान धवल कह कर उस की शुभ्रता पर चार चाँद लगा दिये हैं । अलंकारोक्ति का कवि का आवेश जो यहाँ दिखाई देता है वह उनके कवित्व का एक व्यापक लक्षण है।
इन उदाहरणों में काव्य की रससृष्टि की चर्चा करते समय उद्धृत किये गये श्लोकों के अलंकारों के उदाहरण मिलाने से कवि के अलंकाररचना के कौशलका यथार्थ अंदाज हो सकेगा।
यह तो हुई शब्दालंकारों की तथा सादृश्यमूलक अलंकारों की बात । कवि ने और भी कई उक्तिवैचित्र्यों का लाभ उठाया है, जिनमें कई संस्कृत काव्यशास्त्र की बारीकी में अलंकारोक्ति में ही स्थान प्राप्त कर सकते हैं। उदाहरण स्वरूप,
यस्त्वय्यपि दधौ दृष्टिमुल्मुकाकारधारिणीम् । तमाशुशुक्षणिः साक्षादालप्यालमिदं हि वा ।। १५.४
"तुम्हारे प्रति सुलगते हुए लकडे के समान दृष्टि जिसने रखी है उसे अग्नि (आशुशुक्षणिः) साक्षात् - इतना बोलकर अब बस हो गया” उक्ति को बीचमें ही छोड़ कर अनुक्त शब्दों को मार्मिक ढंग से
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