________________
एकोऽयमेव जगति स्वामीत्याख्यातुमुच्छ्रिता । उच्चैरिन्द्रध्वजव्याजात् तर्जनी जम्भविद्विषा ।। ४.२
वीतरागदेव के समवसरणस्थान पर इन्द्रने (जम्भविद्विषा) इन्द्रध्वज रोपित किया है यह वस्तुतः उसने उँगली ऊँची की है। इस प्रकार यहाँ अपहर्तुति तथा हेतूत्प्रेक्षा ये दो अलंकार परस्पर संयुक्त हैं।
यथानिच्छन्नुपेयस्य परां श्रियमशिश्रियः। ३.१४
इस उदाहरण में दो शब्दालंकार जुड़े हुए हैं - 'य' का वर्णानुप्रास एवं श्रिय' का यमक |
कई स्थान पर एक से अधिक वर्षों का अनुप्रास भी दिखाई देता है “मारयो भुवनारयः” (३.७) “कलये वामकेलये" (९.४) इत्यादि तथा "लब्धा सुधा मुधा" (१५.३) इस प्रकार एक साथ तीन तीन प्रासशब्द प्रयुक्त किये गये हैं जो कवि का वर्णरचना-पदरचना-प्रभुत्व प्रदर्शित करता है।
दो से अधिक अलंकारों का गुम्फन कवि के सविशेष कौशल का हमें परिचय कराता है जैसे कि,
कल्याणसिद्धयै साधीयान कलिरेष कषोपलः । विनाग्निं गन्धमहिमा काकतुण्डस्य नैधते ।। ९.५
'कल्याण' शब्द पर यहाँ श्लेष है | कल्याण माने शुभ, मंगल तथा कल्याण माने सुवर्ण | इस श्लेष पर आधारित है रूपक अलंकार - कलियुग को कल्याणसिद्धि के लिये कसौटी-पथ्थर (कषोपल) कहा गया है । इस बात को दृष्टांत से समर्थित की गई है - अग्नि के बिना अगुरु की गन्धमहिमा का विस्तार नहीं होता वैसे कलियुग के बिना कल्याणसिद्धि नहीं होती।
गायन्निवालिविरुतैर्नृत्यन्निव चलैर्दलैः । त्वद्गुणैरिव रक्तोऽसौ मोदते चैत्यपादपः ।। ५.१
'रक्त' शब्द यहाँ श्लिष्ट है - चैत्यवृक्ष माने अशोकवृक्ष (१) रक्त अर्थात् लाल रंग का है और (२) रक्त अर्थात् वीतरागगुण का अनुरागी है । भौरों के गुंजारव से मानो गा रहा हो तथा हिलते हुए पत्तों से मानों नाच रहा हो ऐसी कल्पना की गई है । ये दोनों
For Private 33ersonal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org