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पुरुषार्थ-चारों-की-प्रसाधक सर्व-विद्या- सृष्टिका आदि प्रवर्तक, जो विधाता और आतम दृष्टिका | जो विगत- आगत- अरु अनागत-कालके सब भावका अनुभव प्रतिक्षण ज्ञानबल से करे सृष्टि-स्वभावका ॥ ३ ॥
यस्मिन् विज्ञानमानन्दं, ब्रह्म चैकात्मतां गतम् । स श्रद्धेयः स च ध्येयः प्रपद्ये शरणं च तम् 11 8 11 चिद्रूप सत्ता बन गई आनन्द - घन - जिनकी अहो ! अद्वैत परम-ब्रह्मने पाया जहां परिपूर्ण तो । श्रद्धेय वह, आदेय भी वह, ध्येय भी मुझ है वही ग्रहु शरन उनकी आज वह सरताज है मेरा सही ॥ ४ ॥
तेन स्यां नाथवांस्तस्मै, स्पृहयेयं समाहितः । ततः कृतार्थो भूयासं, भवेयं तस्य किङ्करः ॥ ५ ॥ निर्नाथ मैं उस नाथको पा कर सनाथ बनुं अभी तलसुं कि शुद्ध समाधिमें उसकी झलक पा लूं कभी । भव-कोटिमें दुर्लभ उसे पा कर कृतार्थ ठराउं मैं मुझको, - उसीका चरणकिंकर और आज बनाउं मैं ॥ ५ ॥ तत्र स्तोत्रेण कुर्यां च पवित्रां स्वां सरस्वतीम् । इदं हि भवकान्तारे, जन्मिनां जन्मनः फलम् ॥ ६ ॥ स्तवना करूं उनकी, स्तवन से जीभको पावन करूं वाणीकी शक्ति जो मिली है मैं उसे सार्थक करूं । भवके गहन वनमें भटकते भव्यजीवोंके लिए
निज३-जन्मका सत्फल यही जो आपकी स्तवना करे ॥ ६॥
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