Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 24
________________ सन्मार्ग के प्रति ले जाते हैं | वीतरागदेव की निपॅथता-परिग्रहरहितता स्वयंस्पष्ट है तथा उनका धर्मशासन प्रवर्तमान है इस अर्थ में वे चक्रवर्ती हैं । जगतके चक्रवर्ती विविध प्रकार के वैभवों से आवृत्त होते हैं उससे यह अलग चीज है। वीतरागदेव के निम्नलिखित चरित्रवर्णन में दिखाई देनेवाला विरोध कुशलता से रखा गया है : अरक्तो भुक्तवान्मुक्तिम् अद्विष्टो हतवान्द्विषः । अहो ! महात्मनां कोऽपि महिमा लोकदुर्लभः ।। ११.२ वीतरागदेव रागी नहीं हैं (अरक्त) तथापि भोगी हैं - अलबत्त मुक्ति का भोग करनेवाले हैं | वे द्वेषरहित हैं (अद्विष्ट), फिर भी शत्रुओं का हनन करते हैं - कामक्रोधादि शत्रुओं का । __इस प्रकार विविध रूपसे किया गया वीतरागदेव की लोकदुर्लभ महिमाका गान एक ओर से उनकी वीतराग दशाको - उनके निवृत्तिभाव को मूर्त करता है तो दूसरी ओर से हमें आश्चर्यभाव में लीन करता है। शांत तथा अद्भुत रस के प्रवाह साथ साथ बहते हैं। __ वीतरागदेव के इस प्रकार के चरित्रवर्णन में भक्तिभाव भी अनुस्यूत है | वीतरागदेव का अलौकिक चरित्र कवि को सिर्फ आश्चर्य से अभिभूत करता है ऐसा नहीं है, वह उनको अपने प्रति आकर्षित करता है, उन्हें अपना अनुरागी बनाता है। उनकी शरण का स्वीकार करने की प्रेरणा देता है । दूसरे से लेकर पाँचवें प्रकाश तक वीतरागदेव के अतिशयों का वर्णन किया गया है। उसमें देवों द्वारा रचित उनके समवसरण स्थान तथा छत्रचामरादि के वैभव का वर्णन हमारे चित्तको आश्चर्य से प्रभावित करता है तथा साथ में उनके प्रति प्रीति भी उत्पन्न करता है किन्तु इसके अतिरिक्त कई प्रकाशों में भक्तिभाव स्वतन्त्र रूप से और विस्तार से अनेक संचारिभावों से पुष्ट करके अभिव्यक्त किया गया है । जैसे कि पंद्रहवें प्रकाश में वीतरागशासन की अवज्ञा करनेवाले, उनका द्वेष करनेवाले की निंदा की गई है तथा उस शासनकी अपने को हुई प्राप्ति की धन्यता आर्द्रभाव से और हृदयंगम ढंग से प्रकट की गई है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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