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“क्षण में आसक्त, क्षण में मुक्त, क्षण में क्रूद्ध, क्षण में क्षमावान - इस प्रकार मोहादि वृत्तिओं ने खेल रचाकर मुझ से बन्दर जैसा चापल्य करवाया है।"
अपने दष्कर्मों का गहरा संताप “शिर पर अग्नि जलाया" (१६.५) ऐसी अलंकारोक्ति से कविने प्रकट किया है और “मेरे समान कोई कृपापात्र नहीं है" (१६.९) ऐसा कह कर अपनी दीनता सूचित की है । अन्त में वीतरागदेव की शरण में जाकर “तारो रे तारो" ऐसी आर्जवपूर्वक बिनती की है । (१६.७)
सत्रहवें प्रकाश में भक्ति धर्मोत्साह का रूप लेती है । अतः स्पष्ट है कि यहाँ वर्णित संचारिभाव सोलहवें प्रकाश से अलग ही है । यहाँ सत्पथ के प्रति अनुराग, सुकृतों की अनुमोदना तथा वीतरागशासन में रहने का संकल्प व्यक्त किया गया है । (१७.१-५) निर्मल क्षमाभाव (१७.६) और असंगता (१७.७) के मनोभाव से प्रतीत होता है कि अगले प्रकाश से यहाँ भक्तिमानस की ऊंची भूमिका अभिप्रेत है । असंगता का चित्रण प्रभावोत्पादक है : “एकोऽहं नास्ति मे कश्चिन्न चाहमपि कस्यचित्” । अत एव अब दैन्य नहीं रहा और अदैन्य का उद्गार व्यक्त होता है - तवाङ्घ्रिशरणस्थस्य मम दैन्यं न किञ्चन" । (१७.७) हाँ, अब वीतरागदेव की शरण प्राप्त हो चुकी है।
बीसवें प्रकाश में भक्तिभाव की पराकोटि समान आत्मसमर्पण का आलेखन किया गया है | वीतरागदेव के नित्य दर्शनसुख की अभिलाषा द्वारा प्रीतिभक्ति प्रकट हुई है वह तो हमारे हृदय को भी आर्द्र कर देनेवाली है :
त्वद्वक्त्रकान्तिज्योत्स्नासु निपीतासु सुधास्विव । मदीयैर्लोचनाम्भोजैः प्राप्यतां निर्निमेषता ।। २०.५
"सुधा के समान तुम्हारे मुख की कान्तिरूपी ज्योत्स्ना का पान करते हुए मेरे नयनकमलों को निर्निमेषता प्राप्त हो” ।
वीतरागदेव के प्रति आसक्ति-रति यह भक्ति ही है, क्यों कि यह पुण्यभाव की प्रेरक है :
मददृशौ त्वन्मुखासक्ते हर्षबाष्पजलोमिभिः । अप्रेक्ष्यप्रेक्षणोद्भूतं क्षणात्क्षालयतां मलम् ।। २०.२
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