Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 19
________________ पहेला अनुभव परथी एम लागतुं हतुं के वधुं सरळ हशे । पण जेम जेम आगळ वधतो गयो तेम तेम कठिनता पण अनुभवाती गइ | शब्देशब्दना अंतरंगमां डोकियुं करवुं पडे, तेनो वास्तविक मर्म शोधवो - पकडवो पडे; स्थूल शब्द ने अर्थ जुदो लागे, ने तेना भाव के तात्पर्य कांइ न्यारा ज जडे; आवुं घणा श्लोकोमां बन्युं । क्यारेक तो एकाद श्लोक पर एवो अटकी जउं के महिनाओ सुधी तेनो मेळ न पडे । ने हठ एवी के ए न आवडे - न ऊगे, त्यां सुधी आगळ पण वधुं नहि । आम ने आम आगळ वधतां छेवटे आ वर्षे आ अनुवाद पूरो थयो । हेमशताब्दीना पर्वे आरंभेलुं आ कार्य हीरशताब्दीना पर्वे पूर्ण थयुं ते पण एक आनंदजनक योगानुयोग छे । आ अनुवादकर्म निमित्ते 'वीतराग स्तव' ना सतत सेवनमां रहेवानुं मल्युं ते पण हृदय-प्रदेशमां उजवाता अनुभूतिना एक महोत्सव जेवी घटना बनी रही। श्री हेमचन्द्राचार्य जेवी समर्थ - प्रतिभाना अक्षरदेहना अंतरंग सांनिध्यमां रहेवानुं मण्युं ते तो नफामां जगणाय । अलबत्त, श्री गुरु भगवंतनी कृपा विना आ कदी शक्य न बने । अंतमां आ अनुवाद विद्वानोना करकमलमां मूकवानी क्षणे एटली नम्र विज्ञप्ति के आमां क्यांय, कोइ पण प्रकारनी क्षति जणाय, छंदोभंग जोवा मले, के स्तुतिकारना आशयथी विपरीत निरूपण के अर्थघटन थयुं लागे, तो ते तरफ मारुं ध्यान दोरे, जेथी ते क्षति सुधारी लेवानी मने तक मळे । - विजयशीलचन्द्रसूरि श्रावण सुदि १५, २०५२ भावनगर Jain Education International १० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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