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पद्यानुवाद प्रसिद्ध छ | जो के आ अनुवादो लोकप्रसिद्ध के लोकभोग्य बन्या जणाता नथी । केम के मूळ कृति ज जो सौ भणता-बोलता-गाता होय, तो पछी तेना अनुवाद तरफ झाझो रस न जागे ते समजी शकाय तेवी बाबत छे । जे मूळ कृति लोकजीभे नथी चडी, तेना अनुवाद वधु लोकभोग्य छ : दा.त. रत्नाकर पच्चीशी । पण 'वीतराग स्तव' नी बाबतमां तो मूल रचना ज लोकभोग्य छ ।
सं. २०४५मां कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यनी नवमी जन्म शताब्दी उजवाती हती । आ निमित्ते, कांइक अवनवू करवा-कराववाना मनोरथो हैये सतत उछल्या ज करता हता । ए वखते चातुर्मास भगवाननगरना टेकरे (अमदावाद) हतुं । एक सांजे कोइ प्रयोजनवश त्यांथी शहेरमां पांजरापोळ उपाश्रये पूज्य गुरु भगवंत श्रीसूर्योदयसरिजी महाराज पासे जवान बन्युं । रस्तामां चालता चालतां एकाएक ज, साव अनायासे, कोइ ज पूर्वविचार के विकल्प विना, 'वीतराग स्तव'ना १७मा प्रकाशना श्लोकोनो हिंदी पद्यानुवाद ऊगवा मांडयो । हरिगीतनो लय पकडाइ गयो, ने एक के बाद एक पंक्तिनो फुटारो थये गयो । हुं य दंग रही गयो के आम केम बने ? आटली झडपथी आq केम ऊगे ? पण अंदरनो प्रवाह उत्कट न पामी शकाय तेवो हतो । जोतजोतामां ए अष्टक आम ज रचाइ गयुं । रचायुं ने पछी 'हेम स्वाध्याय पोथी'मां छपाव्युं । ते जोतां ज पू. गुरु भगवंते प्रसन्न थइने पूछयु : तें बनाव्युं ? तो एक काम कर, आखा 'वीतराग स्तव'नो आवो अनुवाद कर; पण हिंदीमां ज ।
____ में ते पळे गांठ वाळी के वहेले मोडे आ काम करीश | एक तो सर्जन थाय ने बीजं हेमचन्द्राचार्य महाराजनी भक्ति पण थाय । हिंदीनो महावरो पण आ मिषे थशे एवू ऊंडे ऊंडे खरुं।
ए पछी वर्षों वह्यां । पण विचित्रता ए थइ के स्थिरतामां आ न ऊगे | ने विहार चालतो होय त्यारे आपमेळे ऊगवा मांडे | ए चालतां चालतां वारंवार ऊभा रही कागळ पर आडाटेडा अक्षरोमां टपकावी लउं, ने स्थाने जइ सरखी रीते नोंधी लेतो ।
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