Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 16
________________ थया ते जे ते स्थळे पादनोंधरूपे मूक्या छे । अहीं तेना बे-त्रण नमूना तपासीए : १. श्री हेमचन्द्रप्रभवाद्वीतरागस्तवादितः । कुमारपालभूपालः प्राप्नोतु फलमीप्सितम् || आ पद्य, प्रवर्तमान पद्धति प्रमाणे पहेला प्रकाशना अंते पण छे अने छेल्ला (२०मा) प्रकाशना अंते पण होय छे । वास्तवमां आ पद्य वीसे प्रकाश पूरा थया पछी, छेल्ले, एक ज वार छे; ते पण वीसमा प्रकाशने छेडे “इति वीतराग स्तोत्रे आशीः स्तवो विंशः प्रकाशः " - एवी समाप्ति थया पछी ज । जो के आ वात ताडपत्रीय वाचनानी छे । पाछळथी १५-१६मा शतकनी लखायेली कागळनी प्रतोमां आ बाबतमां वैविध्य होवानुं जणाय छे। परंतु, ते प्रतोमां पण आ पद्य तो प्रांते एक ज स्थळे जोवा मळे छे । २. अष्टम प्रकाशना अंतिम श्लोकनो उत्तरार्ध आ प्रमाणे हालमां प्रसिद्ध छे : " त्वदुपज्ञं कृतधियः प्रपन्ना वस्तुतस्तु सत् ॥” आ पाठ खंभातनी त्रिषष्टि. ताडपत्र प्रतिमां तथा पाटणनी ताडपत्र प्रतिमां आवो छे : " त्वदुपज्ञं कृतधियः प्रपन्ना वस्तु वस्तुसत् ॥” आ बे पाठोमां रहेलो तात्त्विक तफावत तज्ज्ञोनी नजरमां अवश्य आवशे । ३. १९मा प्रकाशनुं प्रसिद्ध पद्य - " वीतराग ! सपर्यातस्तवाज्ञापालनं परम् ॥” ए छे । आ पद्यनो प्रवचनो वगेरेमां भरपेट उपयोग थाय छे। खास करीने 'आज्ञा' नुं प्रतिपादन तो आ श्लोक विना भाग्ये ज थाय छे । आ पाठनो अर्थ अत्यारे आवो थाय छे : “हे वीतराग ! (तारी ) पूजा करतां पण तारी आज्ञानुं पालन ए वधु महत्त्वनुं छे ।” अने हवे जुओ खं. ता. - पा. ता. वगेरे प्राचीन प्रतिओनो पाठः Jain Education International ७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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