Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 15
________________ दोषनुं स्वरूप बताव्युं छे, जेने काळांतरे हेमचन्द्राचार्ये 'वीतराग स्तव' मां 'दृष्टिराग'ना (६-१०) नामे वर्णव्यो छे । तेनुं पगेरुं मातृचेटना अध्यर्धशतकमां आ रीते मळे छ : एवमेकान्तकान्तं ते दृष्टिरागेण बालिशाः । मतं यदि विगर्हन्ति नास्ति दृष्टिसमो रिपुः ।। (८,२) अने उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराजे श्री हरिभद्रसूरि महाराजना ग्रंथोने अनुसरीने पोताना ग्रंथोमां श्रुतमय, चिन्तामय अने भावनामय एम त्रिविध बोधनी वात करी छे, तेनुं मूळ पण बौद्ध ग्रंथोमां मळे तेवो पूरो संभव छ । अध्यर्धशतकमां तो ते त्रणे बोधनी वात छे ज : आगमस्याऽर्थचिन्ताया भावनोपासनस्य च । कालत्रयविभागोऽस्ति नान्यत्र तव शासनात् ।। (८-९) तो बीजी बाजु, आपणे त्यां कल्पसूत्रमां शक्रस्तवना अधिकारमा आवता - 'दीवो ताणं सरणं' एवा भगवान जिनेश्वरनां विशेषणोनो उपयोग मातृचेटे आ रीते को छ : त्वमौघैरुह्यमानानां द्वीपस्त्राणं क्षतात्मनाम् । शरणं भवभीरूणां मुमुक्षूणां परायणम् ।। (९-७) आम ऊंडा उतरीए तो जणाशे के आदान-प्रदाननी पण एक उदार अने मार्मिक परंपरा छ । 'वीतराग स्तव'नी वाचना अंगे वीतराग स्तव'नी वाचना प्रसिद्ध ज छ । छतां प्राचीन ताडपत्र प्रतिओ तपासतां तेमां केटलाक पाठो जुदा अथवा वधु योग्य पण मळी आवे छे । 'वीतराग स्तव'ना केटलाक प्रकाशो 'त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित'मां कोइ कोइ तीर्थंकरनी इंद्र के राजा वगेरे द्वारा थयेली स्तवनाना रूपमां पण गुंथाया होइ, त्रिषष्टिनी पोथीओमां पण केटलाक पाठांतरो प्राप्त थाय छे । एवा जे थोडाक पाठांतरो प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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