Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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अध्यात्म और विज्ञान
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उन्हें हमने एक दूसरे का विरोधी मान लिया। आज आवश्यकता इस बात की है कि इनकी परस्पर पूरक शक्ति या अभिन्नता को समझा जाये ।
आज हम विज्ञान को पदार्थ विज्ञान मानते हैं। आज हमने 'पदार्थ पर या अनात्म के सन्दर्भ में इतना अधिक ज्ञान अर्जित कर लिया कि 'स्व' या 'आत्म' को विस्मृत कर बैठे। हमने परमाणु के आवरण को तोड़ कर उसके जर-जर्रे को जानने का प्रयास किया किन्तु दुर्भाग्य यही है कि अपनी आत्मा के आवरण को भेद कर अपने आपको नहीं जान सके । हम परिधि को व्यापकता देने में केन्द्र ही भुला बैठे। मनुष्य को यह परकेन्द्रितता ही उसे अपने आप से बहुत दूर ले गई है । वह दुनिया को समझता है जानता है परखता है किन्तु अपने प्रति तन्द्राग्रस्त है। यही आज के मानव की त्रासदी है। उसे स्वयं यह बोध नहीं है कि मैं कौन हूँ ? मेरा गन्तव्य क्या है ? लक्ष्य क्या है ? वह भटक रहा है । मात्र भटक रहा है। आज से २५०० वर्ष पूर्व महावीर ने मनुष्य की इस पीड़ा को समझा था। उन्होंने कहा था कि कितने ही लोग ऐसे हैं जो नहीं जानते मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? मेरा गन्तव्य क्या है ? यह केवल महावीर ने कहा हो ऐसी बात नहीं है । बुद्ध ने भी कहा था 'अत्तानं गवेस्सेथ' । अपने को खोजो-औपनिषदिक ऋषियों ने कहा-आत्मानं विद्धि-'अपने आपको जानो।' यही जीवन परिशोधन का मूल मन्त्र है। आज हमें पुनः इन्हीं प्रश्नों के उत्तर को खोजना है। आज का विज्ञान आपको पदार्थ जगत् के सन्दर्भ में सूक्ष्मतम सूचनायें दे सकता है किन्तु वे सूचनायें हमारे लिए ठीक उसी तरह अर्थहीन है जिस प्रकार जब तक आँख न खुली हो, प्रकाश का कोई मूल्य नहीं । विज्ञान प्रकाश है किन्तु अध्यात्म की आँख के बिना उसकी कोई सार्थकता नहीं है। आचार्य भद्रबाहु ने कहा था अन्धे व्यक्ति के सामने करोड़ों दीपक जलाने का क्या लाभ ? जिसकी आँख खुली हो उसके लिए एक ही दीपक पर्याप्त है । आज मनुष्य की भी यही स्थिति है । वह विज्ञान और तकनीकी के सहारे विद्युत् की चकाचौंध फैला रहा है किन्तु अपने अन्तर्चक्षु का उन्मीलन नहीं कर रहा है । प्रकाश की चकाचौंध में हम अपने को ही नहीं देख पा रहे हैं, यह सत्य है कि प्रकाश आवश्यक है किन्तु आँख खोले बिना उसका कोई मूल्य नहीं है । विज्ञान ने मनुष्य को शक्ति दी है। आज वह ध्वनि से भी अधिक तीव्र गति से यात्रा कर सकता है। किन्तु स्मरण रहे विज्ञान जीवन के लक्ष्य का निर्धारण नहीं कर सकती। लक्ष्य का निर्धारण तो अध्यात्म ही कर सकता है। विज्ञान साधन देता है, लेकिन उसका उपयोग किस दिशा में करना है यह अध्यात्म का कार्य है। पूज्य विनोबाजी के शब्दों में "विज्ञान में दोहरी शक्ति होती है-एक विनाश शक्ति और दूसरी विकास शक्ति । वह सेवा भी कर सकता है और संहार भी। अग्नि नारायण की खोज हई तो उससे रसोई भी बनाई जा सकती है और उससे : लगाई जा सकती है। अग्नि का प्रयोग घर फूंकने में करना या चूल्हा जलाने में यह अक्ल विज्ञान में नहीं है । अक्ल तो आत्मज्ञान में है। आगे वे कहते हैं-आत्मज्ञान है आँख और विज्ञान है पांव। अगर मानव को आत्मज्ञान नहीं तो वह अन्धा है। कहाँ चला जायगा कुछ पता नहीं। दूसरे शब्दों में कहें तो अध्यात्म देखता तो है लेकिन चल नहीं सकता उसमें लक्ष्य बोध तो है किन्तु गति की शक्ति नहीं । विज्ञान में शक्ति तो है किन्तु आँख नहीं है,
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