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Vaishali Institute Research Bulletin No. 3
प्रधानता थी। भगवान महावीर ने क्षत्रियकुंडग्राम को अपने जन्म से पवित्र किया था । कुंडपुर में ज्ञातृखंड ( नायसंड) नामक एक सुन्दर उद्यान था, जहाँ महावीर ने संसार त्याग कर दीक्षा ग्रहण की थी। इस उद्यान की गणना गिरनार और सिद्धशिला नामक पवित्र तीर्थों के साथ की गयी है । वैशाली का दूसरा महत्त्वपूर्ण भाग वाणियगाम (आधुनिक बनिया) था, संभवतः यहाँ वणिक् लोगों की प्रधानता थी । यहाँ श्रमणोपासक आनन्द नामका श्रावक रहता था, जिसकी अपरिमित धन-संपत्ति -- हिरण्य- सुवर्ण, गाय-बैल, हल, घोड़ा गाड़ी और यान वाहन का उपासकदशा में विस्तार से वर्णन किया गया है। दीक्षा के पश्चात् अपने तपस्वी जीवन में महावीर द्वारा वैशाली और वाणियगाम में बारह चातुर्मास बिताये जाने का उल्लेख कल्पसूत्र में मिलता है । वाणियगाम के उत्तर-पूर्व में कोल्लाग (बसाढ़ के उत्तर-पश्चिम में वर्तमान कोल्हुआ) नामक संनिवेश था, जहाँ आनन्द श्रावक के सगे-संबंधी रहते थे । दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् महावीर ने यहां प्रथम भिक्षा ली थी । कोल्लाग के पास वर्धमान अथवा अट्ठियगाम ( इसकी पहचान हत्थिगाम से की जाती है) नामका गाँव था, जहाँ वेगवती (गंडकी नदी बहती थी । महावीर ने यहाँ प्रथम चातुर्मास व्यतीत किया था। शलपाणि नामक यक्ष का यहाँ मन्दिर था । इसका वास्तविक नाम वर्धमान था, किन्तु यक्षजन्य उपद्रव शान्त करने के लिए मनुष्यों की हड्डियों (अस्थि) पर बनाये हुए देवकुल के कारण यह अट्ठियगाम ( अस्थिग्राम ) कहा जाने लगा ।
बुद्ध की प्रिय नगरी
बहुत प्रशंसा की गयी है । भगवान बुद्ध को यह समृद्धिजब वे वैशाली से प्रस्थान करने लगे, तो नगर के द्वार पर खड़े रहकर उन्होंने हाथी की भाँति अपने सारे शरीर को घुमाकर नागावलोकन से (सिहावलोकन से नहीं) वैशाली की ओर दृष्टिपात करते हुए अपने शिष्य आनन्द को संबोधित करते हुए कहा, "आनन्द, तथागत का यह अन्तिम वैशाली - दर्शन है ।" उल्लेखनीय है कि लगभग १००० वर्ष बाद भारत के चीनी यात्री २८ श्वेनच्य्वाँग (६३४ ईसवी) ने इस स्मरणीय स्थान के दर्शन किये थे, और इससे लगभग २०० वर्ष पूर्व फाशियान नामक दूसरा चीनी यात्री यहाँ आया था । बौद्ध साहित्य में इसलिए भी वैशाली का महत्त्व है कि यहाँ बुद्ध ने अपनी मौसी महाप्रजापति गौतमी के अनुरोध पर स्त्रियों को बौद्ध धर्म में प्रव्रजित होने की अनुज्ञा देकर भिक्षुणी संघ की स्थापना की थी । वैशाली में बुद्ध - परिनिर्वाण के १०० वर्ष बाद बौद्ध भिक्षुओं की दूसरी संगीति की बैठक हुई थी, जिसमें ७०० भिक्षु उपस्थित हुए थे । कहा जाता है कि एकबार यश नामक स्थविर का वैशाली आगमन हुआ,
जहाँ उन्होंने वैशाली के भिक्षुओं में विनय संबंधी यश स्थविर ने उन्हें समझाने-बुझाने का प्रयत्न किया, उल्टे उन्होंने स्थविर को संघ बाह्य कर दिया । तत्पश्चात् यश ने कर वैशाली में संगीति का आयोजन किया ।
नियमों के प्रति लेकिन इसका
शिथिलाचार देखा । कोई असर न हुआ, अर्हत् भिक्षुओं को एकत्र
बौद्ध सूत्रों में वैशाली की
शाली नगरी अत्यंत प्रिय थी ।
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