Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 4
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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प्राकृत : एक अवलोकन
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प्राकृतों का परिचय
शिलालेखी प्राकृत-इसकी जानकारी हमें शिलाखंडों तथा शिलास्तम्भों पर अंकित राजा अशोक (२७१ ई० पू० से २३१ ई० पू० तक) की राजघोषणा से प्राप्त होती है। ये शिलालेख ऐतिहासिक तथा भाषाशास्त्रीय, दोनों ही दृष्टियों से बड़े ही महत्त्वपूर्ण हैं । इनसे कमसे कम तीन जनभाषाओं का पता चलता है, उदाहरणार्थ-(१) गिरिनार के चारों ओर बोली जानेवाली पाली से मिलती-जुलती जनभाषा, (२) मागधो से मिलती-जुलती जौगड के समीप की जनभाषा तथा (३) मनसेहरा के चारों
ओर के क्षेत्रों में बोली जानेवाली जनभाषा । अर्थात् मगध की एक प्रधान-केन्द्रीय जनभाषा ( जिसमें मूलतः राजघोषणाएँ निर्गत हुई होंगी) को छोड़कर पश्चिम, पूर्व तथा उत्तर की इन तीन जनभाषाओं का परिचय हमें शिलालेखों से मिल जाता है।
महाराष्ट्री प्राकृत-प्रायः सभी वैयाकरणों ने महाराष्ट्री को मुख्य प्राकृत के रूप में स्वीकार किया और दंडी तथा हेमचन्द्र जैसे आचार्यों का तो प्राकृत से तात्पर्य महाराष्ट्री से ही है। इसे काव्य की प्रकृष्ट भाषा माना गया है। इसका प्रयोग सेतुबन्ध, गउडवहो आदि काव्यों में, मच्छकटिक, विक्रमोर्वशीय आदि नाटकों के पद्यों में हुआ है। वैयाकरण चण्डने जो प्राचीन महाराष्ट्री की विशेषताएं बतायी हैं, वे प्रायः जैन अर्धमागधी और जैन महाराष्ट्री में पायी जाती हैं। महाराष्ट्री को दक्षिणात्या नाम से भी अभिहित किया गया है। आचार्यों के द्वारा इसे प्राकृतों की आधारभूत भाषा स्वीकार कर लिये जाने पर, इसकी विशेषताएँ भी वे ही रहीं जो प्राकृत सामान्य की बतायी गयी हैं ।
अर्धमागधी---जैनागमों से यह सिद्ध है कि भगवान् महावीर ने अर्धमागधी भाषा में उपदेश दिये और गणधरों ने उन्हें उसी भाषा में सूत्रबद्ध किया। आचार्य हेमचन्द्र ने इसे आर्ष कहा है। यह जैनागमों की भाषा है। नाटकों की अर्धमागधी से भिन्न बताने के लिए इसे जैन अर्धमागधी कहा गया है। यह अर्धमागधी की अपेक्षा मागधी के निकट है। अर्धमागधी नामका कारण इसका आधे मगध देश की भाषा होना है, न कि आधीमागधी भाषा । जिनदासमणि ने निशीथ चूर्णी में इसको स्पष्ट कर दिया है-“मगहद्ध बिषयभाषा निबद्ध अद्धमागहं"।
जैन महाराष्ट्री-आगमों के अतिरिक्त श्वेताम्बर जैनों की अन्य धार्मिक पुस्तकों की भाषा जैन महाराष्ट्री है। इस प्रकार नियुक्तियाँ, भाष्य, चूर्णियाँ तथा टीकाएँ इसी प्राकृत में लिखी गयी हैं। इसके साथ ही तीर्थंकरों तथा अन्य संतों की जीवनियों एवं दर्शन, तर्क, ज्योतिष, भूगोल शास्त्रादि से सम्बन्धित प्राकृत के ग्रन्थ जैन महाराष्ट्री में लिखे गये । प्राचीन भारतीय वैयाकरणों ने जैन महाराष्ट्री के नाम से किसी भाषा का उल्लेख नहीं किया है, किन्तु, युरोपीय विद्वानों ने नाटका दि तथा श्वेताम्बर जैन ग्रन्थों की महाराष्ट्री के अन्तर को. देख दूसरे को जैन महाराष्ट्री कहा है। यह जैन महाराष्ट्री नाटकादि की महाराष्ट्री के सदृश भाषात्मक विशेषताओं से युक्त होने के साथ ही अर्धमागधी के लक्षणों से भी बहुत अधिक प्रभावित है।
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