Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 4
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 218
________________ बाहुबलि कथा का विकास एवं तहिषयक साहित्य : एक सर्वेक्षण तीर्थङ्कर पुत्रों में प्राणान्तक वैषम्य हो, यह कवि की दृष्टि से युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता । अतः कवि ने दृष्टियुद्ध, जलयुद्ध, मल्लयुद्ध के माध्यम से भरतेश्वर को पराजित कराकर भी भरतेश्वर के गौरव की सुरक्षा की है। भरतेश - वैभव के अनुसार भुजबली (बाहुबली) पर चक्ररत्न का प्रयोग उसके वध के लिए नहीं, अपितु उनकी सेवा के लिए प्रेषित किया गया है । इस रूप में कवि ने कथानक के हार्द को निश्चय ही एक नया मोड़ प्रदान किया है । इस प्रसंग में कवि की सूझ-बूझ अत्यन्त सराहनीय एवं तर्कसंगत हैं । अन्य कवियों के कथन की प्रामाणिकता की रक्षा करते हुए भी कवि ने निजी भावना को अभिव्यक्त कर अपने कवि चातुर्य का सुन्दर परिचय दिया है । 'भरतेश-वैभव' ग्रन्थ पाँच कल्याणों में (सर्गों में) विभक्त है - भोग विजय कल्याण, दिग्विजय कल्याण, योग विजय कल्याण, मोक्ष विजय कल्याण एवं अर्ककीर्ति विजय कल्याण । इनमें ८० सन्धियाँ एवं ९९६० श्लोक संख्या है। देवचन्द्र राजबलि कथा के अनुसार इस ग्रन्थ में ८४ सन्धियाँ होनी चाहिए। इससे प्रतीत होता है कि प्रस्तुत उपलब्ध कृति में ४ सन्धियाँ अनुपलब्ध हैं' । इसके रचयिता रत्नाकरवर्णी क्षत्रियवंश के थे। उनके पिता का नाम श्रीमन्दरस्वामी, दीक्षागुरु का नाम चारुकीत्ति तथा मोक्षाग्रगुरु का नाम हंसनाथ (परमात्मा ) था । कवि देवचन्द्र के अनुसार 'भरतेश - वैभव' का रचयिता कर्णाटक के सुप्रसिद्ध जैन तीर्थं मूड विद्री के सूर्यवंशी राजा देवराज का पुत्र था, जिसका नाम "रत्ना" रखा गया । रत्नाकर के विषय में कहा जाता है कि वह अत्यन्त स्वाभिमानी, किन्तु अहंकारी कवि था। अपने गुरु से अनबन हो जाने के कारण उसने जैनधर्म का त्याग कर लिंगायत धर्म स्वीकार कर लिया था और उसी स्थिति में उसने वीर शैवपुराण, वासवपुराण, सोमेश्वर शतक आदि रचनाएँ की थीं । कवि की 'भरतेश वैभव' के अतिरिक्त अन्य जैन रचनाओं में रत्नाकर शतक, अपराजित शतक, त्रिलोकशतक प्रमुख हैं । इसके अतिरिक्त लगभग २००० श्लोक प्रमाण इनके अध्यात्मगीत हैं । २ कवि ने अपनी त्रिलोक- शतक की प्रशस्ति में वर्ष १४७९ ( मणिशैलगति इन्दुशालिशक) अर्थात् सन् कि रत्नाकर का रचनाकाल ई० की १५वीं सदी का मध्यकाल रहा है । 97 १. २. ३. ग्रन्थ की मूल भाषा कन्नड़ है । अपनी विशिष्ट गुणवत्ता के कारण यह ग्रन्थ भारतीय वाङ्गमय का गौरव ग्रन्थ कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी । Jain Education International उसका रचनाकाल शालिवाहन शक १५५७ कहा है । इससे यह स्पष्ट है दे० भरतेश - वैभव - प्रस्तावना, पृ० १ । दे० वही - पृ० १ २ । दे० वही - पृ० २-५ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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