Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 4
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 246
________________ जैनशास्त्र के कुछ विवादास्पद पक्ष 125 आचार्यों ने एव श्वेताम्बर आगमों में किया गया और किसी श्वेताम्बर ग्रन्थ में पुरुष परीषह का उल्लेख नहीं है।' समीक्षक की यह आपत्ति उस समय बिलकुल निरर्थक सिद्ध होती है, जब जैन संघ एक अविभक्त संघ था और तीर्थङ्कर महावीर की तरह पूर्णतया अचेल (सर्वथा वस्त्र रहित) रहता था। उनमें एक, दो आदि वस्त्रों का ग्रहण था और न स्त्रीमोक्ष का समर्थन था । गिरिकन्दराओं, वृक्षकोटरों, गुफाओं, पर्वतों और वनों में ही उसका बास था। सभी साधु अचेल परीषह को सहते थे। आचार्य समन्तभद्र (दूसरी-तीसरी शती) के अनुसार उनके काल में भी ऋषिगण पर्वतों और उनकी गुफाओं में रहते थे। स्वयम्भूस्तोत्र में २२ वें तीर्थंकर अरिष्ट नेमि के तपोगिरि एवं निर्वाणगिरि ऊर्जयन्त पर्वत को 'तीर्थ' संज्ञा को वहन करनेवाला बतलाते हुए उन्होंने उसे ऋषिगणों से परिव्याप्त कहा है और उनके काल में भी वह वैसा था। भद्रबाहु के बाद जब संघ विभक्त हुआ तो उसमें पार्थक्य के बीज आरम्भ हो गये और वे उत्तरोत्तर बढ़ते गये। इन बीजों में मुख्य वस्त्र ग्रहण था । वस्त्र को स्वीकार कर लेने पर उसकी अचेलपरीषह के साथ संगति बिठाने के लिए उसके अर्थ में परिवर्तन कर उसे अल्पचेल का बोधक मान लिया गया तथा सवस्त्र साधु की मुक्ति मान ली गयी। फलतः सवस्त्र स्त्री की मुक्ति भी स्वीकार कर ली गयी। साधुओं के लिए स्त्रियों द्वारा किये जाने वाले उपद्रवों को सहन करने की आवश्यकता पर बल देने हेतु संवर के साधनों में स्त्री परीषह का प्रतिपादन तो ज्यों-का-त्यों वरकरार रखा गया। किन्तु स्त्रियों के लिए पुरुषों द्वारा किये जाने वाले उपद्रवों को सहन करने हेतु संवर के साधनों में पुरुष परीषह का प्रतिपादन सचेल श्रुत में क्यों छोड़ दिया गया, यह वस्तुतः अनुसन्धेय एवं चिन्त्य है। अचेल श्रुत में ऐसा कोई विकल्प नहीं है । अतः तत्त्वार्थ सूत्र में मात्र स्त्री परीषह का प्रतिपादन होने से वह अचेल श्रुत का अनुसारी है। स्त्री मुक्ति को स्वीकार न करने से उनमें पुरुष परीषह के प्रतिपादन का प्रसङ्ग ही नहीं आता। स्त्री परीषह और दंशमशक परीषह इन दो परीषहों के उल्लेख मात्र से ही तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बर ग्रन्थ नहीं है, जिससे उनका उल्लेख करने वाले सभी श्वेताम्बर आचार्य और ग्रन्थ दिगम्बर परम्परा के हो जाने या मानने का प्रसंग आता, किन्तु उपरि निर्दिष्ट वे अनेक बातें हैं, जो सचेल श्रुत से विरुद्ध हैं और अचेल श्रुत के अनुकूल हैं। ये अन्य सब बातें श्वेताम्बर आचार्यों और उनके ग्रन्थों में नहीं हैं। इन्हीं सब बातों से दो परम्पराओं का जन्म हुआ और महावीर तीर्थङ्कर से भद्रबाहु श्रुतकेवली तक एक रूप में चला आया। जैन संघ टुकड़ों में बँट गया। तीव्र एवं मल के उच्छेदक विचार-भेद के ऐसे ही परिणाम निकलते हैं। दंशमशक परीषह वस्तुत: निर्वस्त्र (नग्न) साधु को ही होना सम्भव है, सवस्त्र साधु को नहीं, यह साधारण व्यक्ति भी समझ सकता है। जो साधु एकाधिक कपड़ों सहित हो, उसे डॉस-मच्छर कहाँ से काटेंगे, तब उस परीषह के सहन करने का उसके लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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