________________
श्रमणधर्म और समाज
155 अकिंचनता को पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ अपनाया, वहाँ दूसरी ओर उन्होंने जनाधार को भी बनाये रखा। ऐसे धर्माचार जो निष्प्राण हो चुके थे और केवल नियम निर्वाह के लिए ढोये जा रहे थे, आलोचना के विषय बन गये। इनकी छंटनी करके धर्म को सामाजिक दृष्टि से उपादेय आचार की आधारशिला पर प्रतिष्ठित करने का स्पष्ट प्रयास हमें संतों में दृष्टिगोचर होता है। साथ ही साथ श्रमणधर्मो में जो रूढिबद्ध औपचारिकता के प्रति विद्रोह का स्वर था, उसकी गूंज भी हमें संतों की वाणियों में सुनायी पड़ती है। जाने-अनजाने ये समन्वयवादी भी हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि संतों में जो रूढ़ि के प्रति बिद्रोह, आचार की आधारशिला पर धर्म को प्रतिष्ठित करने और इसे सामान्य जन-जीवन से संबद्ध रखने का प्रयास और समन्वय की भावना हैं, वे श्रमण धर्मो की विरासत हैं।
हम यदि आधुनिक भारतीय समाज की धार्मिक प्रवृत्तियों का विश्लेषण करें तो पायेंगे कि बौद्ध-जनेतर वर्गों में भी अहिंसा दि की पर्याप्त प्रतिष्ठा है और मिला-जुलाकर उनकी धर्मसम्बन्धी धारणा आचारमूलक ही है । श्रमणधर्मों के आचार और विश्वास सामान्य भारतीय जन-जीवन में समाविष्ट ही नहीं, पूर्णतया संश्लिष्ट हो चुके हैं।
औपचारिकताओं के खंडन, सामाजिक दृष्टि से उपादेय आचार की प्रतिष्ठा और समवाय के सूत्रों को आधुनिक सुधारवादी आन्दोलनों ने भी पकड़ा है। इनके द्वारा पुरानी वर्ण-व्यवस्था का, जो अब केवल एक अर्थहीन औपचारिकता बन कर रह गयी है, खण्डन किया गया, सत्य और अहिंसा का राजनीति में सफल प्रयोग किया गया तथा धर्म में समन्वय और राजनीति में सह-अस्तित्व के प्रयास किये गये हैं। इससे यह सिद्ध है कि श्रमण धर्मों की आचार व्यवस्था और सिद्धान्त में व्यावहारिकता है और उनकी उपादेयता की एक ही शतं है--प्रयोग की तत्परता और ईमानदारी।
श्रमण विचारधारा पर बहुधा यह आरोप लगाया जाता है कि यह एक वैराग्यवादी धारा है और संसार से पलायन की मनोवृत्ति का पोषण करती है। यदि पलायन की मानसिकता बहुत व्यापक हो गयी तो पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रिय दायित्वों की उपेक्षा हो जायगी और ऐसी भी स्थिति आ सकती है कि संतान के अभाव में मानव जाति का ही उच्छेद हो जाय।
किन्तु, इस तर्क पर विचार करने के पहले हम यथार्थ का जायजा ले लें। सदियों से वैराग्यवादी विचारधारा के प्रवर्तन के बावजूद राग की अपेक्षा वैराग्य ही क्षीण रहा हैं। इतना ही नहीं, आज उद्दाम राग ने ही मानवता के अस्तित्व को खतरे में डाल रखा है जिसका एक मात्र निदान है वैराग्य के द्वारा उद्दाम राग का संयमन ।
पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रिय दायित्वों के सम्यक निर्वाह के लिए भी जिस तटस्थता की आवश्यकता है वह भी वैराग्य द्वारा ही संभव है, राग के द्वारा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org