Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 4
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 277
________________ 156 Vaishali Institute Research Bulletin No. 4 नहीं। उद्दामराग से युक्त व्यक्ति सामाजिक-राष्ट्रिय दायित्वों के निर्वाह में असमर्थ ही नहीं, सामाजिक-राष्ट्रिय हितों का धातक भी हो सकता है। अतः राग को संयमित करने की आवश्यकता सर्वत्र है। यह भी प्रश्न उठाया जाता है कि बैराग्यवादी विचारधारा से प्रोत्साहन पाकर 'निठल्ले गृहत्या गियों की एक बहुत बड़ी जमात खड़ी हो जाती है, जो समाज के ऊपर एक भार है। किन्तु, वैराग्य का प्रथम सोपान है ज्ञान और ज्ञान से युक्त वैराग्य समाज से जितना लेता है उससे अधिक देता है । घातिया कर्मों से विमुक्त, जीवनमुक्त तीर्थकर भी जग के हित और निश्रेयस के लिए धर्म का प्रवचन करते हैं। भगवान् बुद्ध, शंकराचार्य और गोस्वामी तुलसीदास जैसे विरक्तों ने संसार का जितना हित किया है, उतना शायद किसी उदार सम्राट ने भी नहीं किया होगा। एक सामान्य विरक्त व्यक्ति भी, यदि वह अपने व्रतों के प्रति निष्ठावान् है, तो त्याग और तपोमय जीवन का एक आदर्श तो समाज के सामने प्रस्तुत कर ही सकता है। अतः समाज में विरक्तों की उपयोगिता सदैव बनी रहेगी। प्रश्नोत्तर प्रश्न (१) श्रमणधर्मो की आचार-व्यवस्था समाज को स्वस्थ और संतुलित करने में सक्षम है। किन्तु, इतने दिनों से ये धर्म हैं फिर भी इनका वांछित फल हमें नहीं मिल रहा है । आपकी दृष्टि में इसके क्या कारण हैं ? डा० प्रेमसुमन जैन, अध्यक्ष, प्राकृत विभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर । उत्तर :- धर्म के लिए चक्र का रूपक आया है। धर्मचक्रप्रवर्तन । यह रूपक वड़ा सटीक है । धर्म समाज रूपी गाड़ी को गतिशील रखने के लिए चक्र के समान है। किन्तु चक्र की सार्थकता तब है जब वह गाड़ी में लगा हो। गाड़ी से पृथक करके यदि चक्र को अधर में नचाया जाय तो गाड़ी में इससे गति नहीं आ सकेगी। कोई भी धर्म-व्यवस्था मूल रूप से समाज के लिए उपादेय होती है । किन्तु उसकी उपादेयता व्यापक और सर्वकालिक नहीं हो पाती। इसके दो मुख्य कारण मेरी दृष्टि में आते हैं--(१) बौद्धिक स्तर पर पण्डित लोग इसे ताकिक सूक्ष्मताओं के धरातल पर ले जाते हैं, जिससे धरती से इसका संबंध * यह निबन्ध सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्व विद्यालय, वाराणसी में भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक विकास में श्रमणधर्मों का अवदान विषय पर आयोजित परिसंवाद (फरवरी ९-१३, १९८३) में पढ़ा गया था। इस क्रम में जो प्रश्नोत्तर हुए उसका संक्षेप भी यहाँ दे दिया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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