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Vaishali Institute Research Bulletin No. 4
उत्तर :-युक्ति (Reason) जिसके पक्ष में है उसी पर हम विधेयता की मुहर लगायेंगें
क्योंकि युक्ति के द्वारा ही उचित-अनुचित का विवेक किया जाता है। भगवान् बुद्ध और भगवान् महावीर दोनों ने कहा है कि वह व्यवस्था ग्राह्य है जो युक्ति-पुष्ट हो। पुरानी है अथवा किसी प्रधान पुरुष के द्वारा प्रवर्तित है, इस
आधार पर कोई व्यवस्था ग्राह्य नहीं हो सकती। प्रश्न (३) आपने कहा है कि सिद्धों ने मद्य, मांस, मैथुन का धार्मिक क्रिया कांड में समावेश
कर लिया। किन्तु, बहुधा इन शब्दों की आध्यात्मिक व्याख्या की जाती है। इस विषय में आपकी क्या राय है ?..."
डा० लक्ष्मी नारायण तिवारी पुस्तकाध्यक्ष, सम्पूर्णानन्द
संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी । उत्तर :-मुझे तो बहुधा स्पष्ट प्रतीत होता है कि सिद्धों को अभिधार्थ ही अभिप्रेत है ।
बाद में इसकी ग्राह्यता को निर्विवाद रखने के लिए प्रयत्नपूर्वक इसे लाक्षणिक धरातल पर पहुंचा दिया गया। सम्भव है पीछे इस लाक्षणिकता को उत्तरवर्ती
सिद्धों ने भी अपना लिया हो । प्रश्न (४) ऐसा कहा जाता है कि वर्जनाओं के हठात् आरोप से कुंठा की मनोवृत्ति आ
जाती है जो स्वतंत्र और स्वस्थ विकास में बाधक है। इस सम्बन्ध में आपका क्या विचार है ?....
डा० रमाशंकर त्रिपाठी, अध्यक्ष, श्रमण विद्या संकाय, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय,
वाराणसी। उत्तर :-विधि-निषेध प्रवत्ति-निवृत्ति परस्पर सापेक्ष हैं। हर विधि में निषेध और हर
प्रवृत्ति में निवृत्ति अन्तर्विष्ट है। जैसे सांसारिक सुख-सुविधा के लिए विवाहित जीवन एक विधि है। किन्तु, साथ-ही-साथ उद्दाम कामवासना का नियामक होने के कारण यह एक निषेध भी है। इसी प्रकार प्रत्येक निषेध में भी एक विधि है। जब, किसी कारण से, निषेध की विधि को भूलकर केवल निषेध को ही ढोया जाता है, तब अवश्य कुंठा को मनोवृत्ति का उदय होता है जो अस्वास्थ्यकर है।
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