Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 4
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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श्रमणधर्म और समाज
153 बिनयमूल धर्म कहा है जककि इतर धर्म शौच मूल धमं कहा गया है। विनय की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि विनय दो प्रकार का है-आगार विनय, अनगार विनय । भागार विनय के अन्तर्गत पाँच अनुव्रत, सात शिक्षा प्रत और ग्यारह प्रतिमाएं हैं। अनगार विमय के अन्तर्गत पाँच महाव्रत, रात्रि भोजन त्याग इत्यादि हैं। इस प्रसंग में जो शौच मूल धर्म और विनय मूल धर्म की व्याख्या की गयी है, उससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि एक जहाँ औपचारिकताओं के कारण रूढ़िग्रस्त है, वहाँ दूसरा आचारपरक होने के कारण सार्थक और गतिशील है ।
अहिंसादि व्रतों की सामाजिक उपादेयता निर्विवाद है। फिर व्रतों के जो दो स्तर बनाये गये हैं, वे उन्हें सामाजिक दृष्टि से उपादेय और व्यावहारिक बनाने के उद्देश्य से ही। अहिंसा अनुव्रती को संकल्पी हिंसा से बचना चाहिए। अपने सामाजिक दायित्व निर्वाह के क्रम में अपरिहार्य स्थिति में यदि वह विरोधी हिंसा कर डालता है तो उसे व्रत से च्यूत नहीं कहा जायगा। उसी तरह गृहस्थ के लिए अमैथन अथवा ब्रह्मचर्य व्रत क सीमा है स्वदार-संतोष । ताकि व्यक्ति अपने धर्माचार में सतत जागरूक और गतिशील बना रहे, गृहस्थों के लिए ग्यारह प्रतिमाओं का विधान किया गया है जो मानों उसके धार्मिक जीवन की सीढियाँ हैं। प्रतिमाधारी गृहस्थ सम्यग्दष्टि, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित्त त्याग और रात्रि-भोजन-त्याग का अभ्यास करता हुआ पूर्ण ब्रह्मचर्य का अभ्यास करे । तदनन्तर वह आरम्भ, परिग्रह और अनुमति त्याग करता हुआ मुनि-जीवन की भूमिका में पहुँच जाय। इस तरह प्रतिमाएं जीवन में क्रयशः संयम की अवतारणा का मार्ग प्रशस्त करती हैं। यदि सम्यक् रूप से व्रतों का पालन किया जाय, प्रतिमाओं का अभ्यास किया जाय तो ये आर्थिक वैषम्य, बढ़ती हुई आबादी, हिंसा, भ्रष्टाचार जैसी सामाजिक समर याओं का अपने आप में समाधान हैं।
जैन धर्म की भाँति बौद्ध धर्म को भी हम विनयमूल धर्म की संज्ञा दे सकते हैं । बौद्ध धर्म की मूल भित्ति जिन आचारों पर आधारित है, उनकी सामाजिक उपादेयता का व्यावहारिक पक्ष अशोक के अभिलेखों में दृष्टिगत होता है। अशोक ने तत्कालीन सामाजिक
और राजनीतिक जीवन में धर्म को उतारा और यह सिद्ध कर दिया कि किसी भी धार्मिक व्यवस्था का तात्कालिक उद्देश्य है सामाजिक जीवन में सुख और सुव्यवस्था। राजा ने सामान्य जनों को सम्बोधित करते हुए कहा-'अयं तु महाफले मंगले य धंम मंगले'। संक्षेप में इस धर्म रूपी मंगल का स्वरूप है-दास-भृत्यों के प्रति सम्यक बर्ताव, गुरुजनों का समादर, प्राणियों के प्रति संयम और श्रमण-ब्राह्मणों को दान देना । राजनीति में भी इस धर्म रूपी मंगल की उपादेयता है। यह राजा अशोक के लिए एक स्वानुभूत सत्य था । इसलिए उन्होंने कहा कि धर्म के द्वारा सर्वत्र विजय प्राप्त होती है और अस्त्र विजय की अपेक्षा इसकी दूसरी विशेषता यह है कि इसमें प्रीति का रस होता है। उन्होंने अपने पुत्र
१. द्रष्टव्य-नवम् शिलालेख ।
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