Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 4
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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ज्ञान और कथन की सत्यता का प्रश्नः जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में
डा० सागरमल जैन
समकालीन पाश्चात्य दर्शन में भाषा विश्लेषण का दर्शन की एक स्वतन्त्र विधा के रूप में विकास हुआ और आज वह एक सबसे प्रभावशाली दार्शनिक सम्प्रदाय के रूप में अपना अस्तित्त्व रखता है । प्रस्तुत शोध निबन्ध का उद्देश्य मात्र यह दिखाना है कि पाश्चात्य दर्शन की ये विधाएँ एवं समस्याएँ जैन दर्शन में सहस्त्राधिक वर्ष पूर्व किस रूप में चर्चित रही हैं और उनकी समकालीन पाश्चात्य दर्शन से किस सीमा तक निकटता है ।
ज्ञान की सत्यता का प्रश्न
सामान्यतया ज्ञान के प्रामाण्य या सत्यता का अर्थ ज्ञान की ज्ञेय विषय के साथ अनरूपता या संवादिता है । यद्यपि, ज्ञान की सत्यता के सम्बन्ध में एक दूसरा दृष्टिकोण स्वयं ज्ञान का संगतिपूर्ण होना भी है, क्योंकि जो ज्ञान आन्तरिक विरोध से युक्त है, वह भी असत्य माना गया है। जैन दर्शन में वस्तु स्वरूप को अपने यथार्थ रूप में, अर्थात् जैसा वह है उस रूप में जानना अर्थात् ज्ञान का ज्ञेय (प्रमेय) से अव्यभिचारी होना ही ज्ञान की प्रमाणिकता है । यहाँ यह प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण है कि ज्ञान की इस प्रामाणिकता या सत्यता का निर्णय कैसे होता है ? क्या ज्ञान स्वयं ही अपनी सत्यता का बोध देता है या उसके लिए किसी अन्य ज्ञान (ज्ञानान्तर ज्ञान) की अपेक्षा होती है ? अथवा ज्ञान की प्रमाणिकता के लिए ज्ञान और ज्ञेय की संवादिता ( अनुरूपता) को देखना होता है ? पाश्चात्य परम्परा में ज्ञान की सत्यता के प्रश्न को लेकर तीन प्रकार की अवधारणाएँ हैं - ( १ ) संवादिता सिद्धान्त; (२) संगत सिद्धान्त और (३) उपयोगितावादी (अर्थक्रियाकारी) सिद्धान्त । भारतीय दर्शन में वह संवादिता का सिद्धान्त परतः प्रामाण्यवाद के रूप में और संगति-सिद्धान्त स्वतः प्रामाण्यवाद के रूप में स्वीकृत है । अर्थक्रियाकारीसिद्धान्त को परतः प्रमाण्यवाद की ही एक विशेष विधा कहा जा सकता है । जैन दार्शनिकों ने इस सम्बन्ध में किसी एकान्तिक दृष्टिकोण को न अपनाकर माना कि ज्ञान के प्रामाण्य या सत्यता का निश्चय स्वतः और परतः दोनों प्रकार से होता है । यद्यपि, जैन दार्शनिक यह मानते हैं कि ज्ञान के प्रामाण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति का आधार ( कसोटी) ज्ञान स्वयं न होकर ज्ञेय है । प्रमाणनय तत्त्वालोक में आदिदेव सूरि ने कहा है कि " तदुभयमुत्पत्तौ परत एवं" अर्थात् प्रामाण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति तो परतः ही
१. ज्ञानस्य प्रमेयाण्यभिचारित्वं प्रामाण्यम् । तदितत्त्वप्रमाण्यम् ।
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- प्रमाणनय तत्त्वालोक, १।१५.
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