Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 4
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 259
________________ 138 Vaishali Institute Research Bulletin No. 4 मरकगलि का बन्ध, ईश्वर अथवा परमात्मा जैसी किसी की कृपा अथवा अकृपा के कारण नहीं होता, अपितु स्वयं उसके द्वारा उपार्जित कर्मों के फलस्वरूप ही होता है। जैनदर्शन में कर्मों के दो प्रकार हैं-(१) घातिया कर्म (२) अघातिया कर्म । धातिया कर्म वे हैं जो आश्रयभूत आत्मा का घात करते हैं। वे चार प्रकार हैं--ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय । अघातिया कर्म वे हैं जो आत्मा घात तो नहीं करते, किन्तु केवल ज्ञान प्राप्त हो जाने पर भी आत्मा को उस पर्याय में आयु कर्म के क्षीण होने तक बद्ध रखते हैं। ये भी चार प्रकार के हैं—नाम, गोत्र, वेदनीय और आयुकर्म । संसारी जीव द्वारा मन, वचन एवं काय से की गयी चेष्टाएँ कर्मबन्धन के मार्ग हैं एवं इसके आधार पर ही उसको आगामी भव में प्राप्त होनेवाली गति तथा अन्य सम्बद्ध बातें निर्धारित होती हैं । उत्कृष्ट अथवा जघन्य आयु की प्राप्ति भी पूर्वजन्म के कर्मों पर निर्भर करती है। ___ सम्पूर्ण जैनदर्शन में मोक्ष प्राप्ति पर ही बल दिया गया है। मोक्ष ही लक्ष्य है और मोक्ष वह स्थिति है, जिसमें आत्मा अपनी विशुद्धावस्था को प्राप्त कर जन्म और मृत्यु के चक्र से छूट जाती है और उसका पुनर्जन्म नहीं होता। पुनर्जन्म का समापन मोक्ष प्राप्त करने पर ही होता है। मोक्ष प्राप्ति के पूर्व तक संसारी आत्मा कर्मफलानुसार विभिन्न पर्यायों में जन्म लेती है। अतः पुनर्जन्म आत्मा की संसारी अवस्था का प्रतीक है और मोक्ष उसकी मुक्तावस्था का । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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