Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 4
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 267
________________ 146 Vaishali Institute Research Bulletin No. 4 होते रहेंगे। यदि यह कहा जाय कि फिर एक आश्रयभूत पदार्थ की कल्पना व्यर्थ है तो हमारा कहना होगा कि बौद्धों ने जिस प्रकार से अर्थक्रियारहित होने से नित्य पदार्थ को कल्पना मात्र ठहराया है तो उन्हें अपने द्वारा स्थापित 'वास्तविकता' को अर्थक्रियाकारी सिद्ध करना था। बौद्धों को तर्कना तर्काभासरूप है क्योंकि जहाँ पूर्वपक्ष की आलोचना में वे अर्थक्रियाकारिता को सत् का लक्षण मानकर चलते हैं और अर्थक्रियाकारी होने का मतलब 'वस्तु का व्यापारवान् होना' लेते दिखाई देते हैं, वहाँ वे अपनी स्थापना में क्षणिकसत् को व्यापारवान् सिद्ध करने में असमर्थ रहते हैं, और उसे केवल 'शक्तिक्षय' के रूप में देखते हैं। ___धर्मकीत्ति प्रमाणवात्तिक-प्रत्ययपरिच्छेद श्लोक-३ में अर्थक्रियासमर्थ को परमार्थसत् कहते हैं। फिर श्लोक-४ में सबकुछ को अशक्त (अशक्तं सर्वम्) और कारण-कार्य भाव को संवृतिरूप कहते हैं। इस पर अकलंकदेव का व्यंग्य है कि "अपने पक्ष में अर्थक्रियासमर्थ को परमार्थसत् के रूप में अंगीकार करके स्वयं ही पुनः अर्थक्रिया का निराकरण कर देना क्या उन्मत्तपना नहीं"११ ? लधीयस्त्रय श्लोक-८ में अक लंकदेव कहते हैं : "सर्वथा नित्य और सर्वथा क्षणिक पक्ष में क्रम और अक्रम (युगपत) रूप से अर्थक्रिया नहीं बन सकती किन्तु वह (अर्थक्रिया) पदार्थों के लक्षणरूप से स्वीकार की गयी है।" इससे स्पष्ट है कि जैन दार्शनिकों को सत् का लक्षण 'अर्थक्रियाकारी होना' स्वीकार है। परन्तु उनका कहना है कि यह लक्षण नित्यवाद और क्षणिकवाद में घटित न होकर, 'स्यात् सत् नित्यानित्यात्मक है'-ऐसा सत् का स्वरूप मानने पर ही घटित हो सकता है। अर्थात् सत् को किसी अपेक्षा (द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा) से नित्य और किसी अपेक्षा (पर्यायाथिकनय की अपेक्षा) से अनित्य स्वीकार करना चाहिए। जैनों के अनुसार सत् परिणामी नित्य है। आगे हम जैन दर्शन में अर्थक्रियाकारित्व की की गयी व्याख्या प्रस्तुत करेंगे। (२) जैन दर्शन केवल 'द्रव्य' नामक पदार्थ स्वीकार करता है । वैशेषिकों के गुणकर्मादि पदार्थ उसकी भिन्न-भिन्न प्रकार की अवस्थाएँ हैं। द्रव्य जाति की अपेक्षा से छ: और संख्या की अपेक्षा से अनन्त हैं। द्रव्य गुणपर्यायों वाला होता है ।१४ प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने गुणों का अखण्ड पिण्ड होता है। गुणों को द्रव्य से पृथक् नहीं किया जा सकता और गुणों के बिना द्रव्य भी कुछ नहीं है । गुण द्रव्य में एक साथ और सदैव पाये जाते हैं । १३. लधीयस्त्रय श्लोक ८ की स्ववृत्ति । १४. गुण पर्ययवद् द्रव्यम् । तत्वार्थसूत्र ५१३८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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