Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 4
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 268
________________ सत् का लक्षण : अर्थ क्रियाकारित्व 147 गुण के 'प्रतिसमय के परिणमन को पर्याय' कहते हैं। दूसरे शब्दों में 'गुण' शक्तिरूप है और उसकी व्यक्ति का नाम पर्याय है। एक गुण की एक समय एक ही पर्याय होती है। लेकिन उसी समय द्रव्य में रह रहे दूसरे गुणों की भी अपनी कोई एक-एक पर्याय होती है। इस तरह अनेकों गुणों की अपेक्षा से द्रव्य में 'सहवर्ती पर्याय' और एक गुण की अपेक्षा से द्रव्य में 'क्रमवर्ती पर्याय' होती हैं। पर्याय, परिणाम व कार्य एकार्थवाची हैं। अतः कहा जा सकता है कि द्रव्य युगपत् और क्रम से अर्थक्रियाकारी है। यहाँ हम 'सहवर्ती पर्यायों की 'द्रव्य की एक समय की पर्याय' के रूप में वाचित करेंगे क्योंकि इस लाघव से प्रकरण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हमें परिणाम का बोध होता है। परिणाम को जैन, बौद्ध और नैयायिक तीनों वास्तविक मानते हैं। बौद्ध 'परिणाम' को ही वास्तविक मानने हैं, उसके आश्रयभूत किसी तत्व को वे स्वीकार नहीं करते। उनके मत में पूर्वक्षण से उत्तरक्षण की उत्पत्ति नहीं होती बल्कि पूर्वक्षण के बाद उत्तरक्षण आता है। परन्तु वह आता कहाँ से है? इसका जबाब एकमात्र यह है 'शून्य से' । 'लेकिन शून्य से कोई कार्य आता है और फिर शून्य में चला जाता है'-यह व्याख्या बुद्धिगम्य नहीं कही जा सकती । नैयायिक कार्य के आश्रय रूप 'समवायीकरण' जो द्रव्य पदार्थ होता है, को स्वीकार करते हैं। पर वे असत्कार्यवादी हैं। उनके अनुसार समवायीकरण कार्यरूप से परिणत नहीं होता अथवा समवायीकरण से कार्य उत्पन्न नहीं होता, बल्कि कार्य समवायी कारण में समवाय संबंध से समवेत होकर उत्पन्न होता है। उनके लिए कार्य को रहने के लिए आश्रय की आवश्यकता तो होती है, परन्तु उत्पन्न होने के लिए किसी 'उपादानभूत' तत्व की आवश्यकता नहीं होती। तब न्यायमत में भी कार्य की उत्पत्ति शून्य से ही स्वीकार करनी पड़ेगी। जैनों को पुनः यह व्याख्या भी स्वीकार नहीं होगी। 'मिट्टी से घड़े बनने' के उदाहरण को लें। मिट्टी की पिण्डरूप अवस्था से स्थास, कोश, कुशूल, और फिर घट बनता है। जैनों के लिए मिट्टी पिण्डादि अवस्थाओं को छोड़कर अर्थात्-व्यय करके घट रूप से परिणत होती है। पिण्ड रूप अवस्था का नष्ट होना व्यय है, घट पर्याय का उत्पन्न होना उत्पाद है और मिट्टी का ज्यों का त्यों रहना, उसका अन्वय रहन 'ध्रौव्य' है। इसी प्रकार प्रत्येक सत् यानि द्रव्य उत्पाद व्यय ध्रौव्यमय है। उसमें प्रतिक्षण पूर्वपर्याय का व्यय उत्तरपर्याय का उत्पाद और गुण ध्रुव रहते हैं । द्रव्य में उत्पाद, व्यय, और ध्रौव्य के होने में क्षणभेद नहीं है ।१५ पूर्व पर्याय के व्यय के साथ ही उत्तर पर्याय की उत्पत्ति होती है और दोनों अवस्थाओं में रहने वाला द्रव्यत्व ध्रव रहता है। १५. प्रवचनसार, गाथा १०२ पर अमृतचन्द्र की टीका । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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