Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 4
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 269
________________ 148 Vaishali Institute Research Bulletin No. 4 उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-ये तीनों परस्पर अविनाभावी हैं।१६ उत्पाद व्यय के बिना नहीं होता। एक दव्य में दो पर्यायें एक साथ नहीं होतीं। मिट्टी को पिण्डरूप अवस्था के विनाश के साथ ही घट उत्पन्न होता है वही घट का उत्पत्ति-कारण है। इस कारण के नहीं होने पर घट की उत्पत्ति नहीं हो सकती। यदि कारण के बिना भी उत्पाद हो सकता है तो हमें असत् जैसे खरविषाण, की उत्पत्ति भी स्वीकार कर लेनी चाहिये । इसी तरह से उत्पाद के बिना व्यय भी घटित नही हो सकता। मिट्टी के पिण्ड के विनाश के साथ ही घट उत्पन्न होता है। अत: उत्पाद रहित व्यय कैसे हो सकता है अथवा ऐसा मानने पर सत् का उच्छेद ही मानना पड़ेगा। __ इसी तरह से उत्पाद और व्यय के बिना ध्रौव्य भी नहीं हो सकता। अर्थक्रियाकारी होने से प्रत्येक सत् परिणमनशील होता है । कूटस्थ नित्य नहीं। इस तरह से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य परस्पर अविनाभावी हैं। इन्हें एक दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता-इस दृष्टि से तो वे अभिन्न हैं, परन्तु उनके लक्षण जुदे-जुदे हैं, उन्हें भिन्न-भिन्न रूप में जाना जा सकता है-इस दृष्टि से वे भिन्न-भिन्न हैं। __ 'वस्तु बदलती है' या 'वस्तु एक अवस्था को छोड़कर दूसरी अवस्था को धारण करती है'–परिवर्तन की इस व्याक्या को भ्रामक कहना गलत है। यहाँ शक्ति और व्यक्ति का संबंध है। 'वस्तु' की 'शक्ति' के रूप में, और 'अवस्थाओं' को 'व्यक्ति' के रूप में समझा जा सकता है। शक्ति को ही व्यक्ति होती है, इस रूप में वस्तु और उसकी अवस्था में अभेद है, लेकिन शक्ति रूप अवस्था और व्यक्ति रूप अवस्था एक ही प्रकार की चीज नहीं है या शक्ति अनेकों रूप में प्रकट हो सकती है-इस दृष्टि से वस्तु और उसकी अवस्था विशेष में भेद है । इस तरह वस्तु और उसकी अवस्थाओं में भेदाभेद संबंध है। __ परिवर्तन को अर्थात् अर्थक्रिया को सत् का लक्षण स्वीकार करने पर और परिवर्तन की उपर्युक्त वणित यथार्थवादी व्याख्या को समुचित मान लेने पर सत् का स्वरूप नित्या. नित्यात्मक या उत्पादव्यय-ध्रौव्यात्मक फलित होता है जिसकी व्याख्या हम पहले कर चुके हैं। सर्वथा नित्य सत् अपने स्वरूप को कभी छोड़ता ही नहीं है । अतः उसमें अर्थक्रियाघटित नहीं होती। अर्थक्रिया करने का मतलब होता है, उत्तरपर्याय की अपेक्षा रखना, उस तक पहुँचना, सर्वथा क्षणिक सत् उत्तरपर्याय तक ठहरता ही नहीं इसलिए वह भी अर्थक्रियाकारी नहीं हो सकता । नित्यानित्यात्मकद्रव्यपर्यायात्मक सत् ही अर्थक्रियाकारी हो सकता है। प्रत्येक द्रव्य नित्य है और प्रति समय 'कार्य' करता है । लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि प्रतिसमय उसमें तीनों कालों की अर्थ क्रियाएँ करने की सामर्थ्य रहती है । १६. प्रवचनसार, गाथा १००, पर अमृतचन्द्र की टीका । · Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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