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Vaishali Institute Research Bulletin No. 4
ही । फिर ऐसा भी नहीं कहा का सकता कि 'अमुकनिमित्त नहीं थे इसलिए अमुक कार्य महीं हो सका, बल्कि अमुक कार्य हुआ' क्योंकि कार्य का वास्तविक कारण उपदानकारणगत योग्यता होती है । कार्य से हम कारण का अनुमान कर सकते हैं । अतः वस्तु में जिस सयय जैसा कार्य होता है, उसके आधार से हम कह सकते हैं कि वस्तुतः उस समय का उपादान कारण वैसा ही था । और तब निमित्त भी उसी के अनुकूल थे । कार्य उपादान कारण से होता है । बाह्य द्रव्यों-परिस्थितियों का उपचार से ही कारण कहा जाता है । वस्तुतः उन द्रव्यों ने भी उस समय अपना-अपना कार्य किया था । एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में हस्तक्षेप नहीं होता । २० मिट्टी सादृश्य के आधार पर ही यह कहा जाता है कि उससे अनेकों चीजें बनती है लेकिन जो मिट्टी घटरूप से परिणमन के अभिमुख होती है उससे घट ही बनता है, अन्य कुछ नहीं ।
जैन दर्शन की कार्य-कारण मीमांसा की मूल बात यह है कि पूर्व पर्याय युक्त द्रव्य उपादान कारण होता है और उत्तर पर्याय युक्त द्रव्य कार्य होता है । २१ अर्थात् एक द्रव्य की पूर्वोत्तर पर्यायों में उपादान उपादेय भाव होता है । २२ जैसा उपादान कारण होता हैउत्तरक्षण में वैसा ही कार्य होता है और तब उसकी वही अर्थक्रिया कहलाती है ।
बौद्धों ने नित्य पदार्थ के खंडन के लिए जो युक्तियाँ दी है, वे सत् को कूटस्थनित्य मानने पर ही लागू होती हैं, जैन दर्शन द्वारा वर्णित सत् के परिणामी नित्य स्वरूप पर वे लागू नहीं होतीं । वस्तु नित्य है । अतः कहा जा सकता है कि द्रव्यगत योग्यता के रूप में अपने से जायमान तीनों कालों के कार्यों की अर्थक्रियाएँ करने की उसमें सदैव सामर्थ्य होती है । परन्तु केवल द्रव्य कार्यकारी नहीं होता । विशिष्ट रूप से परिणत द्रव्य ही विशिष्ट अर्थक्रियाएँ करता है। किसी कार्य के अनन्तर पूर्ववर्त्ती द्रव्य ही समर्थकारण होता है, उसके पहले वह उस कार्य को करने में असमर्थ होता है । असमर्थ से समर्थ स्वभाव को प्राप्त करने से द्रव्य को कथंचित् अनित्य कहा जा सकता है, परन्तु यह सर्वथा विनाश रूप अनित्यता नहीं है । क्योंकि असमर्थ से समर्थ स्वभाव को प्राप्त करना अवस्था परिवर्तन रूप परिणाम है, ना कि अर्थान्तर रूप परिणाम । और वस्तु में अवस्थाओं का उत्पाद व्यय होने पर भी, जैन दर्शन के अनुसार, वस्तु का स्वभाव उत्पन्न या नष्ट नहीं होता । इस तरह से कहा जा सकता है कि बौद्धों की आलोचनाएँ जैन दर्शन द्वारा मान्य सत के स्वरूप पर लागू नहीं होतीं ।
परिणाम प्रतिक्षण होता है - इस बारे में जैन बौद्ध दोनों एकमत हैं। लेकिन बौद्ध जहाँ उन परिणामों में प्रत्यभिज्ञान के विषयभूत अन्वयतत्व को स्वीकार नहीं करते, वहाँ जैन उसे स्वीकार करते हैं और इस तरह वे निरन्वय विनाशवाद से उत्पन्न होने वाली अनेकों समस्याओं से बच जाते हैं ।
२०.
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समयसार, गाथा १०३, ३७२ । कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा ८३० । वही, तत्वचर्चा, भाग १, पृ० ३०४ ।
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