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सत् का लक्षण : अर्थ क्रियाकारित्व
145 बौद्ध ऐसा नहीं कह सकते कि 'पहले कोई चीज स्वयं उत्पन्न होगी फिर हो तो वह अन्य को उत्पन्न करेगी'; क्योंकि सब तो उन्हें नैयायिकों की तरह यह भी कहना चाहिए कि 'फिर अर्थात् तृतीय क्षण में नष्ट होगी' जिसे वे नहीं स्वीकार करते । प्रश्न यह चल रहा है कि 'कारण कार्य को कैसे उत्पन्न करता है ? बौद्ध सत्कार्यवादियों का यह मत स्वीकार नहीं करेंगे कि 'कारण अपने में से कार्य को उत्पन्न करता है'। 'क्षण स्थायीभाव ही विनाश है' अर्थात् विनाश या अभाव वस्तु के क्षण मात्र रहने से अतिरिक्त कुछ नहीं है, अतः कारण के अभाव से कार्य की उत्पत्ति भी स्वीकार नहीं की जा सकती। क्षणिकवाद में कारण के व्यापार की भी बात नहीं की जा सकती। इन सब बातों से यह फलित होता है कि जिस तरह से बौद्ध विनाश को अनेतुक मानते हैं उसी प्रकार उनके यहाँ उत्पाद भी अहेतुक है। कार्य किसी के
द्वारा उत्पन्न नहीं किया जाता, वह अपने काल में स्वयं उत्पन्न होना है। (य) कथन (४) में शान्तरक्षित ने यही बात कही है। पूर्वक्षण के बाद उत्तरक्षण
आता है अतः उनमें कारण-कार्य का व्यवहार होता है। कार्यक्षण कारणक्षण पर इसी रूप में आश्रित है कि वह उसके बाद आता है। तथा कारण का व्यापार उसकी सत्ता से अतिरिक्त कुछ नहीं है। साथ ही "क्योंकि उसकी सत्ता मात्र से ही कार्य उत्पन्न हो जाता है" इस वाक्यांश पर ध्यान देने की जरूरत है, इससे स्पष्ट हो जाता है कि 'उत्पाद भी अहेतुक है।' कमलशील कहते हैं :
"किसी भी विलक्षण व्यापार से रहित वस्तुमात्र ही हेतु (कारण) है" १२ अब इस प्रश्न का कि कोई क्षण कैसे उत्पन्न होता है', यह उत्तर है कि वह 'अपने आप से प्रकट होता है। फिर प्रश्न उठता है जो जिस देश काल में उत्पन्न हुआ वह उसी देश-काल में क्यों हुआ, अन्य में क्यों नहीं ? इसका उत्तर यही हो सकता है कि ऐसा ही उसका स्वभाव है। इस तरह से बौद्ध दिङ्नाग स्कूल का 'अर्थ क्रियाकारित्व' का सिद्धान्त नियतिवाद में फलित हो जाता है ।
बौद्धों के लिए परिवर्तन ही वास्तविक है और इसकी स्थापना के लिए ही उन्होंने सत् का लक्षण 'अर्थक्रियासामर्थ्य' दिया है। परन्तु परिवर्तन उनके लिए पूर्वक्षण का में बदल जाना नहीं है, बल्कि परिवर्तन पूर्वक्षण के बाद उत्तरक्षण का प्रकट होना है। अतः यदि परिवर्तन का यही मतलब है तो इसके लिए नित्य पदार्थ का खंडन करने की क्या आवश्यकता है ? क्योंकि नित्य पदार्थ में भी एक-एक करके कार्य अपने आप प्रकट
१२.
Buddhist Logic भाग १, पृ० १२१ पर उद्धृत ।
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