Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 4
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 262
________________ सत का लक्षण : अर्थ क्रियाकारित्व 141 तो फिर, बौद्धों का कहना है कि पदार्थ में नित्यता नहीं है। नित्य तो वह होता है कि जिसमें न तो कोई नूतन स्वभाव उत्पन्न होता है और न विद्यमान स्वभाव का नाश होता है। दूसरा विकल्प : to समय पर पदार्थ में उत्त रक्षगों में होने वाली अर्थक्रियाओं की सामर्थ्य है । लेकिन तब एक अर्थक्रिया (xo) के काल (to) पर अन्य अर्थक्रियाओं (x, x,"") की भी सामर्थ्य रहने से वे सब युगपत् to पर सम्पन्न हो जाने से, उत्तरक्षणों (th, ta,...) में वस्तु के लिए कुछ करने को सामर्थ्य नहीं रहने से वह असत् हो जायेगी। इस तरह से युगपत् अर्थक्रियाकारी मानने पर पदार्थ क्षणिक सिद्ध होता है । (३) नित्यवादी यह कहना चाहेंगे कि अकेले उपादान कारण से कार्य नहीं होता । कार्य को उत्पन्न करने के लिए निमित्त कारणों की भी अपेक्षा रहती है । पदार्थ में अनेकों अर्थक्रियाओं की सामर्थ्य रहने पर भी जिस समय जैसे सहकारी कारण मिलते हैं, उसके अनुरूप ही पदार्थ में अर्थक्रिया सम्पन्न होती है। सहकारी कारणों के क्रम से प्राप्त होने से नित्य पदार्थ क्रम से अर्थक्रिया करता है और इस तरह से एक अर्थक्रिया के काल में अन्य अर्थक्रियाएँ इसलिए सम्पन्न नहीं होती क्योंकि उनके कारण मौजूद नहीं थे। (बौद्धों का उत्तर निम्न प्रकार से हैं-) इसका मतलब हुआ कि नित्य पदार्थ स्वयं कार्य करने में असमर्थ है और जैसे सहकारी कारण मिलते हैं उस कार्य को करने में वह समर्थ हो जाता है। इसका मतलब हुआ कि सहकारियों ने पदार्थ में कोई अतिशय (विशेषता-गुण) उत्पन्न कर दिया। लेकिन बौद्धों का मानना है कि गुणधर्मों में परिवर्तन हो जाने से वस्तु ही परिवर्तित हो जाती है । अत: असमर्थ स्वभाव वाला सत् कोई दूसरा है और समर्थ स्वभाव बाला सत् दूसरा है । इस प्रकार पदार्थ की नित्यता का खंडन हो जाता है। उपर्युक्त आलोचना द्वारा बौद्ध यह दिखाना चाहते हैं कि अर्थक्रियाकारी होने से सत् नित्य नहीं हो सकता। ऐसा पदार्थ जो अनेक अर्थक्रियाओं की सामों से युक्त हो और उनमें से कभी किसी को करे और कभी किसी को, ऐसा नहीं हो सकता । मान लीजिये वर्तमान वस्तुस्थिति है-एक घट में जल भरा हुआ है। इस घट की वर्तमान अर्थक्रिया जलधारणरूप है और वह इस क्रिया की सामर्थ्य से ही युक्त है। इस समय यह भूत और भविष्य की जलधारणरूप अर्थ क्रियाएँ नहीं कर रहा, इसलिए यह उनकी सामर्थ्य से युक्त भी नहीं हैं, जैसे कि मिट्टी से पट की उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए उनमें पट विषयक सामर्थ्य भी नहीं है । प्रत्येक क्षण में भिन्न-भिन्न अर्थक्रियाएँ होने से उनसे युक्त सत् भी भिन्न-भिन्न है, क्षणिक है। अर्थक्रियाकारित्व सत् को परिवर्तनशील सिद्ध करता है। लेकिन वस्तु का एक अवस्था से दूसरी अवस्था को प्राप्त होना परिवर्तन है-परिवर्तन की यह यथार्थवादी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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