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जैन दर्शन में आत्मा और पुनर्जन्म
विश्वनाथ चौधरी
भारतीय दर्शनों में जैनदर्शन को नास्तिक दर्शन माना जाता है। जैन, बौद्ध और चार्वाक दर्शन तीनों ही दर्शन वेदों में अनास्था रखते हैं, किन्तु जैन और बौद्धदर्शन अनेक दृष्टियों से अन्य भारतीय दर्शनों से समानता रखते हैं । जैनदर्शन आत्मा की अविनश्वरता में विश्वास करता है । 'गीता' में भी आत्मा के स्वरूप का उल्लेख करते हुए आत्मा को शस्त्रों द्वारा अच्छेद्य, अग्नि द्वारा अदाह्य, जल द्वारा अवभेद्य तथा पवन द्वारा अशोष्य बतलाया गया है ।' ऐसा अजर-अमर आत्मा का अस्तित्व अनादिकाल से है तथा अनन्तकाल तक रहेगा । केवल यह आत्मा एक शरीर का परित्याग कर दूसरे शरीर को उसी प्रकार धारण करता है, जिस प्रकार कोई व्यक्ति पुराने वस्त्र का परित्याग कर नवीन वस्त्रों को धारण करता है ।
आत्मा की अमरता एवं द्रव्य को न तो उत्पन्न ही वह तो केवल रूपान्तरित होता है । आत्मा का पुनर्जन्म कहलाता है । दार्शनिक दृष्टिकोण से । जैनदर्शन में भी निश्चय नय की
जैनदर्शन में आत्मा अथवा जीव को द्रव्य माना गया है। शाश्वतता जीव द्रव्य की अपेक्षा से है क्योंकि द्रव्य अविनाशी है । किया जा सकता है और न तो नष्ट ही । वह परिणमन ही जनसाधारण की भाषा में आत्मा का न तो जन्म ही होता है और न मृत्यु ही अपेक्षा से आत्मा को जन्म एवं मृत्यु से स्वतंत्र एक किया गया है । व्यवहार नय की अपेक्षा से आत्मा का द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है । एक पर्याय का सद्भाव होना असम्भव है । एक काल है | जैनदर्शन में व्यवहार नय की अपेक्षा से ही शरीर को आत्मा बतलाया गया है, अन्यथा आत्मा तो शरीर में पूर्णतया भिन्न, चेतना से युक्त द्रव्य है । शरीर का निर्माण पुद्गल द्रव्य से हुआ है जो जड़ है । प्रश्न यह उठता है कि चेतन द्रव्य आत्मा एवं जड़ द्रव्य पुद्गल का यह सम्बन्ध किस अपेक्षा से है ?
शाश्वत सत्तर के रूप में स्वीकार पर्यायों में रूपान्तर ही होता है । अभाव हुए बिना दूसरा पर्याय एक ही द्रव्य का दो पर्यायों का होना असम्भव
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वस्तुतः अनादिकाल से आत्मा जड़ कर्मों के संयोग से अशुद्धावस्था को प्राप्त है एवं यह कर्मबन्ध ही आत्मा के संसार भ्रमण का कारण है । आत्मा जब विभाव रूप परिणमन करता है तो राग-द्वेषादि कषाय उत्पन्न होते हैं । इनसे आत्मा के प्रदेशों में एक प्रकार का स्पन्दन होता है । इस विक्षोभकारी स्पन्दन के परिणाम स्वरूप ही पुद्गल कर्म वर्गणाएँ संसारी आत्मा की ओर उसी प्रकार आकृष्ट होती हैं, जिस प्रकार लोहे के कण चुम्बक
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" नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः ।
न
चैनं
क्लेद्यन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।। " गीता, द्वि० अ० २३।२४ ।
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