Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 4
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 244
________________ जनशास्त्र के कुछ विवादास्पद पक्ष 123 नहीं किया है ।' यह लिखने के बाद तत्त्वार्थसूत्र में सचेल श्रुतपना सिद्ध करने के लिए पुनः लिखा है कि आवयक नियुक्ति और ज्ञातधर्म कथा में जिन बीस बोलों का उल्लेख है उनमें जो ४ बातें अधिक हैं वे हैं-सिद्ध भक्ति, स्थविर भक्ति (वात्सल्य), तपस्वी-वात्सल्य और अपूर्वज्ञान ग्रहण । इनमें से कोई भी बात ऐसी नहीं है, जो दिगम्बर परम्परा को अस्वीकृत रही हो, इस लिए छोड़ दिया हो, यह तो मात्र उसकी संक्षिप्त शैली का परिणाम है।' ___ इस सम्बन्ध में प्रश्न किया जा सकता है कि ज्ञातृधर्मकथासूत्र भी सूत्रग्रन्थ है, उनमें बीस कारण क्यों गिनाये, तत्त्वार्थसूत्र की तरह उसमें १६ ही क्यों नहीं गिनाये, क्योंकि सूत्रग्रन्थ है और सूत्र ग्रन्थ होने से उसकी भी शैली संक्षिप्त है । तत्त्वार्थसूत्र में १६ की संख्या का निर्देशन होने की तरह ज्ञातृधर्मकथासूत्र में भी २० की संख्या का निर्देशन होने से क्या उसमें २० के सिवाय और भी कारणों का समावेश है ? वस्तुतः तत्त्वार्थसूत्र में सचेलश्रुत के आधार पर तीर्थङ्कर प्रकृति के बन्धकारण नहीं बतलाये, अन्यथा आवश्यक नियुक्ति की तरह उसमें ज्ञातृधर्मकथासूत्र के अनुसार वे ही नाम और वे ही २० संख्यक कारण प्रतिपादित होते । किन्तु उनमें दिगम्बर परम्परा के षखण्डागम४९ के अनुसार वे ही नाम और उतनी ही १६ को संख्या को लिए हुए बन्धकारण निरुपित हैं। इससे स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बर श्रुत के आधार पर रचा गया है और इस लिए वह दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ है और उसके कर्ता दिगम्बराचार्य हैं। उत्सूत्र और उत्सूत्र लेखक श्वेताम्बर परम्परा का अनुसारी नहीं हो सकता। . अब रही तत्त्वार्थसूत्र में १६ की संख्या का निर्देश न होने की बात । सो प्रथम तो वह कोई महत्त्व नहीं रखती, क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र में जिसके भी भेद प्रतिपादित हैं उसकी संख्या का कहीं भी निर्देश नहीं है। चाहे तपों के भेद हों, चाहे परीष हों आदि के भेद हों। सूत्रकार की यह पद्धति है, जिसे सर्वत्र अपनाया गया है। अतः तत्त्वार्थसूत्रकार को तीर्थकर प्रकृति के बन्धकारणों को गिनाने के बाद संख्यावाची १६ (सोलह) के पद का निर्देश अनावश्यक है। तत्संख्यक कारणों को गिना देने से ही वह संख्या सुतरां फलित हो जाती है। १६ की संख्या न देने का यह अर्थ निकालना सर्वथा गलत है कि उसके न देने मे तत्त्वार्थ सूत्रकारको २० कारण अभिप्रेत हैं और उन्होंने सिद्धभक्ति आदि उन चार बन्ध कारणों का संग्रह किया है, जिन्हें आवश्यक नियुक्ति और ज्ञातधर्म कथा में २० कारणों (बोलों) के अन्तर्गत बतलाया गया है। अत: उपर्युक्त अर्थ निकालना ग्राम का है। दूसरी बात यह है कि तीर्थङ्कर प्रकृति के १६ बन्धकारणों का प्ररूपक सूत्र (त० सू० ६-२४) जिस दिगम्बर श्रुत (षट्खण्डागम) के आधार से रचा गया है उसमें स्पष्टतया 'दंसणविसुज्झदाए इच्चेदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं बंधति ।' ४९. षट्रवं. ३-४०, ४१, पुस्तक ८, पृ. ७८-७९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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