Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 4
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 238
________________ जैनशास्त्र के कुछ विवादास्पद पक्ष 117 खण्डन किया है और उत्तर अकलंक ने दिया है। यदि समन्तभद्र धर्मकीर्ति के परवर्ती होते तो वे स्वयं उनका जवाब देते और उस स्थिति में अकलंक को धर्मकीत्ति के उपर्युक्त आक्षेपों का उत्तर देने का मौका ही नहीं आता। चालीस-पचास वर्ष पूर्व स्व. पं. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य, स्व. पं. सुखलाल संधवी आदि कुछ विद्वानों ने समन्तभद्रको धर्मकीतिका परवर्ती होने की सम्भावना की थी।२७ किन्तु अब ऐसे प्रचुर प्रमाण सामने आ गये हैं, जिनके आधार पर धर्मकीर्ति समन्तभद्र से काफी उत्तरवर्ती (३००-४०० वर्ष पश्चात्) सिद्ध हो चुके हैं। इस विषय में डॉ. ए. एन. उपाध्ये एवं डॉ. हीरालाल जैन का शाकटायन व्याकरण पर लिखा प्रधान सम्पादकीय द्रष्टव्य है । 'धर्मकीर्ति और समन्तभद्र' शीर्षक हमारा शोधपूर्ण लेख भी अवलोकनीय है२८, जिसमें उक्त विद्वानों के हेतुओं पर विमर्श करने के साथ ही पर्याप्त तथा अनुसन्धान प्रस्तुत किया गया है। दूसरा प्रश्न यह उठता है कि 'सिद्धसेन के न्यायावतार और समन्तभद्र के श्रावकाचार में किसी पद (पद्य) को समान रूप से पाये जाने पर समन्तभद्र को ही पूर्ववर्ती क्यों माना जाय ? यह भी तो सम्भव है कि समन्तभद्र ने स्वयं उसे सिद्धसेन से लिया हो और वह उससे परवर्ती हो ?' प्रस्तुत सम्भावना इतनी शिथिल और निर्जीव है कि उसे पुष्ट करने वाला एक भी प्रमाण नहीं दिया जा सकता। अनुसन्धान के क्षेत्र में यह आवश्यक है कि सम्भावना के पोषक प्रमाण दिये जायें, तभी उसका मूल्याङ्कन होता है और तभी वह विद्वानों द्वारा आदृत होती है। यहाँ उसी पर विमर्श किया जाता है । समन्ति भद्र द्वारा रचित एक श्रावकाचार है, जो सबसे प्राचीन महत्त्वपूर्ण और सुव्यवस्थित श्रावकाचार प्रतिपादक ग्रन्थ है । इसके आरम्भ में धर्म की व्याख्या का उद्देश्य बतलाते हुए उसे सम्यगदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्र इन तीन रूप बतलाया गया है। सम्यक् दर्शन का स्वरूप उन्होंने देव, शास्त्र और गुरु का दृढ़ एवं अमूढ श्रद्धान कहा है। अतएव उन्हें तीनों का लक्षण बतलाना भी आवश्यक था । देवका लक्षण प्रतिपादन करने के उपरान्त समन्तभद्रने ९ वें पद्यके२९ द्वारा शास्त्र का लक्षण निरूपित किया है। यह पद्य सिद्धसेन के न्यायावतार में भी उसके ९ वें पद्य के रूप में पाया जाता है। २७. न्यायकु. द्वि. भा., प्रस्ता० पृ. २७, अकलं० ग्रन्थत्रय, प्राक्कथ. पृ. ९, न्यायकु. द्वि. प्रा. पृ. १८, १९, २० । २८. जैनदर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन, पृ. १२६ से १३३ । २९. आप्तोपज्ञमनुल्लंघ्यमदृष्टेष्ट विरोधकम् । तत्त्वोपदेशकृत्सा शास्त्रं कापथघट्टनम् ।।--रत्नक. श्रो. ९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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