Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 4
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 236
________________ जैनशास्त्र के कुछ विवादास्पद पक्ष 115 (कथंचित) का विधान है वह स्याद्वाद है। धर्मकीर्ति ने समन्तभद्र के इस स्याद्वाद लक्षण की समीक्षा की है तथा उनके 'किंचित्' के विधान–स्याद्वाद को अयुक्त, अश्लील और आकुल 'प्रलाप' कहा है। ___ ज्ञातव्य है कि आगमों में२२ 'सिया पज्जत्ता, सिया अपज्जत्ता', 'गोयमा! जीवा सिय सासया, सिय अमासया' जैसे निरूपणों में दो भङ्गों तथा कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय२3 में सिंय अत्थि णत्थि उहयं...' इस गाथा (१४) के द्वारा गिनाये गये सात भङ्गों के नाम तो पाये जाते हैं। पर स्याद्वाद की उनमें कोई परिभाषा नहीं मिलती। समन्तभद्र की आप्तमीमांसा में ही प्रथमतः उसकी परिभाषा और विस्तृत विवेचन मिलते हैं। धर्मकीर्ति ने उक्त खण्डन समन्तभद्र का ही किया है, यह स्पष्ट ज्ञात होता है। धर्मकीर्ति का 'तदप्येकान्तसम्भवात्' पद भी आकस्मिक नहीं है, जिसके द्वारा उन्होंने 'सर्वथा एकान्त के त्याग से होने वाले किंचित् (कथंचित्) के विधान-स्याद्वाद (अनेकान्त) में भी एकान्त की सम्भावना करके उसका-अनेकान्त का खण्डन किया है। इसके सिवाय धर्मकीति ने समन्तभद्र की उस मान्यता का भी खण्डन किया है२४, जिसे उन्होंने 'सदेव सर्व कोनेच्छेत्' (का० १५) आदि कथन द्वारा स्थापित किया है ।२५ वह मान्यता है सभी वस्तुओं को सद्-असद्, एक-अनेक, आदि रूप से उभयात्मक (अनेकान्तात्मक) प्रतिपादन करना । धर्मकीर्ति उसका खण्डन करते हुए कहते हैं कि 'सबको उभय रूप मानने पर उनमें कोई भेद नहीं रहेगा। फलतः जिसे 'दही खा' कहा, वह ऊँट को खाने के लिए क्यों नहीं दौड़ता ? जब सभी पदार्थ सभी रूप हैं तो उनके वाचक शब्द और बोधक ज्ञान भी भिन्न-भिन्न नहीं हो सकते । धर्मकीति के द्वारा किया गया समन्तभद्र का यह खण्डन भी अकलंक को सह्य नहीं हुआ और उनके उपर्युक्त दोनों आक्षेपों का जवाब बड़ी तेजस्विता के साथ उन्होंने दियः २२. भूतबली पुष्पदन्त, षट्खं० १।१।७९ । २३. सिय अत्थि णत्थि उहयं अव्वत्तवं पुणो य तत्तिदयं । दव्ळ खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि ।।--पंचास्ति० गा० १४ । २४. सर्वस्योभयरुपत्वे तद्विशेष निराकृतेः ।। चोदितो दधि खादेति किमुष्ट्र नाभिधावति ।-प्रमाणवा० १-१८३ । कथं चित्तें सदेवेष्ट कथंचिदसदेव तत् । तथोभयमवाच्यं च नययोगान्त सर्वथा । सदेव सर्वं को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ।।-आप्त भी. का. १४, १५ आदि। ५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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