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जैनशास्त्र के कुछ विवादास्पद पक्ष
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ही उक्त मान्यता का खण्डन किया है। इसका सवल प्रमाण यह है कि कुमारिल के खण्डन का भी जवाब अकलंक देव ने दिया है ।१४ उन्होंने बड़े सन्तुलित ढंग से कहा है कि 'अनुमान द्वारा सुसिद्ध केवल ज्ञान (सर्वज्ञता) आगम के बिना और आगम केवल ज्ञान के बिना सिद्ध नहीं होता, यह सत्य है, तथापि दोनों में अन्योन्याश्रय दोष नहीं है, क्योंकि पुरुषातिशय (केवल ज्ञान) प्रतीतिवश से माना गया है। उन (केवल ज्ञान और आगम) दोनों में बीज और अंकुर की तरह अनादि प्रबन्ध (प्रवाह-सन्तान) है।'
अकलंक के इस उत्तर से बिलकुल स्पष्ट है कि समन्तभद्र ने जो अनुमान से अरहन्त के केवल ज्ञान (सर्वज्ञता) की सिद्धि की थी, उसी का खण्डन कुमारिल ने किया है और जिसका सयुक्तिक उत्तर अकलंक ने उक्त प्रकार से दिया है। केवल ज्ञान के साथ 'अनुमानविजृम्भितम्'–'अनुमान से सिद्ध' विशेषण लगा कर तो अकलंक (वि० सं० ७ वीं शती) ने रहा-सहा सन्देह भी निराकृत कर दिया है। इस उल्लेखप्रमाण से भी प्रकट है कि कुमारिल ने समन्तभद्र की आप्तमीमांसा का खण्डन किया और जिसका समन्तभद्र से कई शताब्दी बाद हुए अकलंक देव ने दिया है। समन्तभद्र को कुमारिल का परवर्ती मानने पर उनका जवाब वे स्वयं देते, अकलंक को उसका अवसर ही नहीं आता।
३. कुमारिल ने समन्तभद्र का जहाँ खण्डन किया है वहाँ उनका अनुगमन भी किया है ।५ विदित है कि जैन दर्शन में वस्तु को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीन रूप माना गया है । १६ समन्तभद्र ने लौकिक और आध्यात्मिक दो उदाहरणों द्वारा उसकी समर्थ पुष्टि की है। इन दोनों उदाहरणों के लिए उन्होंने एक-एक कारिका का सृजन किया है । पहली (५९ वीं) कारिका के द्वारा उन्होंने प्रकट किया है कि जिस प्रकार घट, मुकुट और स्वर्ण के इच्छुकों को उनके नाश, उत्पाद और स्थिति में क्रमशः शोक, हर्ष और माध्यस्थ्यभाव होता है और इसलिए स्वर्ण वस्तु व्यय, उत्पाद और स्थिति इन तीन रूप है, उसी १४. एवं यत्केवल ज्ञानमनुमानविजृम्भितम् ।
नर्ते तदागमात्सिद्धयेत् न च तेन विनाऽऽगमः ।। सत्यमर्थबलादेव पुरुषातिशयो मतः ।
प्रभवः पौरुषेयोऽस्य प्रबन्धोऽनादिरिष्यते ।।-न्या० वि० का० ४२२, २३ । १५. मी० श्लो० वा०, पृ० ६१९ । १६. दव्वं सल्लक्षणयं उपादव्वयधुवत्तसंजुत्तं ।
गुणपज्जपासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू ।।-कुन्दकुन्द, पंचास्ति० गा० १० । अथवा 'सद् द्रव्यलक्षणम्', 'उत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्तं सत्।
-उमास्वाति (गृद्धविच्छ), त० सू० ५-२९, ३० । १७. घट-मौलि-स्वार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् ।
शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ।। पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोत्ति दधिव्रतः । आगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्व त्रयात्मकम् ।।-आ० मी० का० ५९, ६० ।
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