Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 4
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 239
________________ 118 Vaishali Institute Research Builetin No. 4 अब विचारणीय है कि यह पद्य श्रावकाचार का मूल पद्य है या न्यायावतार का मुल पद्य है । श्रावकाचार में यह जहाँ स्थित है वहाँ उसका होना आवश्यक और अनिवार्य है। किन्तु न्यायावतार में जहाँ वह है वहाँ उसका होना आवश्यक एवं अनिवार्य नहीं है, क्योंकि वह वहाँ पूर्वोक्त शब्द लक्षण (का. ८)३० के समर्थन में अभिहित है । उसे वहाँ से हटा देने पर उसका अङ्ग भङ्ग नहीं होता। किन्तु समन्तभद्र के श्रावकाचार से उसे अलग कर देने पर उसका अङ्ग-भङ्ग हो जाता है। इससे स्पष्ट है कि उक्त ९ वा पद्य, जिसमें शास्त्र का लक्षण दिया गया है, श्रावकाचार मूल है और न्यायावतार में अपने विषय (८ वें पद्य में कथित शाब्द लक्षण) के समर्थन के लिए उसे वहाँ से ग्रन्थकार ने स्वयं लिया है या किसी उत्तरवर्ती ने लिया है और जो बाद को उक्त ग्रन्थ का भी अङ्ग बन गया। यह भी ध्यातव्य है कि श्रावकाचार में आप्त के लक्षण के बाद आवश्यक तौर पर प्रतिपादनीय शास्त्र लक्षण का प्रतिपादक अन्य कोई पद्य नहीं है, जबकि न्यायावतार में शाब्द लक्षण का प्रतिपादक ८ वां पद्य है। इस कारण भी उक्त ९ वां पद्य (आप्तोपज्ञमनु-) श्रावकाचार का मूल पद्य है, जिसका वहाँ मूल रूप से होना नितान्त आवश्यक और अनिवार्य है । तथा न्यायावतार में उसका ८ वें पद्य के समक्ष, मूलरूप में होना अनावश्यक, व्यर्थ और पुनरुक्त है। अतः यही मानने योग्य एवं न्याय संगत है कि न्यायावतार में वह समन्तभद्र के श्रावकाचार से लिया गया है, न कि श्रावकाचार में न्यायावतार से उसे लिया गया है । न्यायावतार से श्रावकाचार में. उसे (९ वें पद्य को) लेने की सम्भावना बिलकुल निर्मूल एवं बेदम है। __ इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने पर न्यायावतार में धर्मकीति३१ (ई० ६३५), कुमारिल (ई० ६५०)३२ और पात्र स्वामी (ई० ६ ठी, ७ वीं शती)33 इन ३०. दृष्टेष्टाव्याहताद्वाक्यात् परमार्थाभिधायिनः । तत्त्वग्राहितयोत्पन्नं मान शाब्दं प्रकीर्तितम् ।।--'यायाव. श्लो. ८ । ३१. (क) न प्रत्यक्षपरोक्षाभ्यां मेयस्यान्यस्य संभवः । तस्मात्प्रमेय द्वित्वेन प्रमाणद्वित्वभिष्यते ।।-प्र. वा. ३-६३ । प्रत्यक्षं च परोक्षं च द्विधा मेयविनिश्चयात् ।-न्यायाव. श्लो. १ । (ख) 'कल्पनापोढयभ्रान्तं प्रत्यक्षम्'-न्या. बि. पृ. ११ । 'अनुमानं तदभ्रान्तं प्रमाणत्वात समक्षवत् ।'- न्यायाव. श्लो. ५। कुमारिल के प्रसिद्ध प्रमाणलक्षण (तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्रितं बाधवजितम् । अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्यतम् ।।) का 'बाधवजितम' विशेषण न्यायावतार के प्रमाणलक्षण में 'बाधविजितम्' के रूप में अनुसृत है। ३३. पात्रस्वामिका 'अन्यथानुपपन्नत्वं' आदि प्रसिद्ध हेतुलक्षण न्यायावतार में 'अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोललक्षणमोरितम्' इस हेतुलक्षणप्रतिपादक कारिका के द्वारा अपनाया गया है और 'ईरितम्' पदका प्रयोग कर उसकी प्रसिद्धि भी प्रतिपादित की गयी है । ३२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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