Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 4
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 232
________________ जैनशास्त्र के कुछ विवादास्पद पक्ष 111 आप्तमीमांसा का है। कुमारिल प्रथमत: सामान्य सर्वज्ञ का खण्डन करते हुए कहते हैं कि 'सभी सर्वज्ञ (तीर्थ प्रवर्तक) परस्पर विरोधी अर्थ (वस्तुतत्त्व) के जब उपदेश करने वाले हैं और जिनके साधक हेतु समान (एक-से) हैं, तो उन सबों में उस एक का निर्धारण कैसे करोगे कि अमुक सर्वज्ञ है और अमुक सर्वज्ञ नहीं हैं। कुमारिल उस परस्पर-विरोध को भी दिखाते हुए कहते हैं कि यदि सुगत सर्वज्ञ है, कविल नहीं, तो इसमें क्या प्रमाण है और यदि दोनों सर्वज्ञ हैं, तो उनमें मतभेद कैसा ।' इसके अलावा वे और कहते हैं कि 'प्रमेयत्व आदि हेतु जिस (सर्वज्ञ) के निषेधक हैं, उन हेतुओं से कौन उस (सर्वज्ञ) की कल्पना (सिद्धि) करेगा।' यहाँ ध्यातव्य है कि समन्तभद्र के 'परस्पर विरोधतः' पद के स्थान में 'विरुद्धार्थीपदेशिषु', 'सर्वेषां' की जगह 'सर्वेषु' और 'कश्चिदेव' के स्थान में 'को ना मैकः' पदों का कुमारिल ने प्रयोग किया है और जिस परस्पर विरोध की सामान्य सूचना समन्तभद्र ने की थी, उस कुमारिल ने सुगत, कपिल आदि विरोधी तत्त्वों पदेष्टाओं के साम लेकर विशेषतया उल्लेखित किया है। समन्तभद्र ने जो सभी तीर्थ प्रवर्तकों (सुगत आदि) में परस्पर विरोध होने के कारण ‘कश्चिदेव भवेद् गुरुः' शब्दों द्वारा कोई (एक) को ही गुरुसर्वज्ञ होने का प्रतिपादन किया था. उस पर कुमारिल ने प्रश्न करते हुए कहा कि 'जब सभी सर्वज्ञ हैं और विरुद्धार्थोपदेशी हैं तथा सबके साधक हेतु एक से हैं, तो उन सब में से 'को नामैकोऽवधार्यताम्'-किस एक का अवधारण (निश्चय) करते हो।' कुमारिल का यह प्रश्न समन्तभद्र के उक्त प्रतिपादन पर ही हुआ है। और उन्होंने उस अनवधारण (सर्वज्ञ के निर्णय के अभाव) को 'सुगतो यदि सर्वज्ञः कपिलो नेति का प्रमा' आदि कथन द्वारा प्रकट भी किया है। यह सब आकस्मिक नहीं है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि समन्तभद्र ने अपने उक्त प्रतिपादनपर किसी के प्रश्न करने के पूर्व ही अपनी उक्त प्रतिज्ञा (कश्चिदेव भवेद् गुरुः) को आप्तमीमांसा (का. ४ और और ५) में अनुमानप्रयोगपूर्वक सिद्ध किया है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। अनुमानप्रयोग में उन्होंने 'अनुमेयत्व' हेतु दिया है, जो सर्वज्ञ सामान्य की सिद्धि करता है और जो किसी एक का निर्णायक नहीं है। इसी से कुमारिलने 'तुल्यहेतुषु सर्वेषु' कहकर उसे अथवा उस जैसे प्रमेयत्व आदि हेतुओं को सर्वज्ञ का अनवधारक (अनिश्चायक) कहा है। इतना ही नहीं, उन्होंने एक अन्य कारिका के द्वारा समन्तभद्र के इस 'अनुमेयत्व' हेतु की तीव्र आलोचना करते हुए कहा कि 'जो प्रमेयत्व आदि हेतु सर्वज्ञ के निषेधक हैं, उनसे बौद्ध विद्वान् शान्तरक्षित ने इन कारिकाओं में प्रथम की दो कारिकाएँ अपने तत्त्वसंह (का० ३१४८-४९) में कुमारिल के नाम से दी हैं। दूसरी कारिका विद्यानन्द ने अष्ट स० पृ० ५ में 'तदुक्तम्' के साथ उद्धृत की है। तीसरी कारिका मीमांसा श्लोकवार्तिक (चोदना सूत्र) १३२ है। आप्तमी० का० ४, ५ । ९. मी० श्लो० चो० सू० का० १३२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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