Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 4
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 231
________________ Vaishali Institute Research Bulletin No. 4 सामन्तभद्र ने सर्व प्रथम कहा कि 'सभी तीर्थ प्रवर्तकों (सर्वज्ञों) और उनके समयों ( आगमों-उपदेशों) में परस्पर विरोध होने से सब सर्वज्ञ नहीं हैं, कश्चिदेव' – कोई ही (एक) गुरु (सर्वज्ञ) होना चाहिए।' उस एककी सिद्धिकी भूमिका बांधते हुए उन्होंने आगे ( का . ४ में ) कहा कि 'किसी व्यक्ति में दोषों और आवरणौ का निःशेध अभाव ( ध्वंस ) हो जाता हैं, क्योंकि उनकी तरतपता (न्यूनाधिकता ) पायी जाती है, जैसे सुवर्ण में तापन, कूटन आदि साधनों से उसके बाह्य (कालिमा) और अभ्यन्तर (कीट) दोनों प्रकार के मलों का अभाव हो जाता है।' इसके पश्चात् वे कहते हैं कि 'सूक्ष्मादि पदार्थ किसी के प्रत्यक्ष हैं क्योंकि वे अनुमेय हैं, जैसे अग्नि आदि।' इस अनुमान से सामान्य सर्वज्ञकी सिद्धि करके वे विशेष सर्वज्ञकी भी सिद्धि करते हुए (का. ६ व में) कहते हैं कि 'हे वीर जिन ! अर्हन् ! वह सर्वज्ञ आप ही हैं, क्योंकि आप निर्दोष हैं और निर्दोष इस कारण हैं, क्योंकि आपके वचनों (उपदेश ) में युक्ति तथा आगम का विरोध नहीं है, जब कि दूसरों (एकान्तवादी आप्तों) के उपदेशों में युक्ति एवं आगम दोनों का विरोध है, तब वे सर्वज्ञ कैसे कहे जा सकते हैं ।' इस प्रकार समन्तभद्र ने अनुमान से सामान्य और विशेष सर्वज्ञ की सिद्धि की है । और इसलिए अनुमानद्वारा सर्वज्ञ सिद्ध करना आप्तमीमांसागत समन्तभद्र की मान्यता है । S 110 आज से एक हजार वर्ष पूर्व ( ई० १०२५) के प्रसिद्ध तर्क ग्रन्थकार वादिराज सूरिन" भी उसे ( अनुमान द्वारा सर्वज्ञ सिद्ध करने को ) समन्तभद्र के देवागम (आप्तमीमांसा ) की मान्यता प्रकट की है। पार्श्वनाथचरित में समन्तभद्र के विस्मयावह व्यक्तित्वका उल्लेख करते हुए उन्होंने उनके देवागमद्वारा सर्वज्ञ के प्रदर्शनका स्पष्ट निर्देश किया है । इसी प्रकार आ० शुभचन्द्र ने भी देवागम द्वारा देव (सर्वज्ञ) के आगम (सिद्धि) को बतलाया है । इन असन्दिग्ध प्रमाणों से स्पष्ट है कि अनुमान से सर्वज्ञ की सिद्धि करना समन्तभद्र की आप्तमीमांसा की निःसन्देह अपनी मान्यता है । और उत्तरवर्ती अनेक ग्रन्थकार उसे शताब्दियों से उनकी ही मान्यता मानते चले आ रहे हैं । अब कुमारिल की ओर दृष्टिपात करें । कुमारिलने ही प्रकार के सर्वज्ञ का निषेध किया है । यह निषेध और ५. ६. ७. सर्वज्ञेषु च भूयस्सु विरुद्धार्थीपदेशिषु । तुल्यहेतुषु सर्वेषु को नामैकोऽवधार्यताम् ॥ सुगतो यदि सर्वज्ञः कपिलो नेति का प्रभा । तावुभावपि सर्वज्ञौ मतभेदः कथं तयोः ॥ प्रत्यक्षाद्यविसंवादि प्रमेयत्वादि यस्य च । सद्भाववारणे शक्तं को नु तं कल्पयिष्यति ॥ Jain Education International स्वामिनचरितं तस्य कस्य नो विस्मयावहम् । देवागमेन सर्वज्ञो येनाद्यापि प्रदर्श्यते ॥ -- पार्श्वनाथ चरि० १।१७ । देवगनेन येनात्र व्यक्तो देवाऽऽगमः कृतः । पाण्डव पु० । सामान्य और विशेष दोनों किसीका नहीं, समन्तभद्र की For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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