Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 4
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institnte Research Bulletin No. 4 जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि प्रायः समस्त कवियों ने बाहुबली के चरित्र को समुज्ज्वल बनाने हेतु भरत के चरित्र को सदोष बनाने का प्रयत्न किया है तथा पराजित होकर चक्र प्रहार करने से उन पर मर्यादाविहीन एवं विवेकविहीन होने का दोषारोपण किया गया है। किन्तु एक ऐसा विशिष्ट कवि भी हुआ, जिसने कथानक की पूर्व परम्परा का निर्वाह तो किया ही, साथ ही भरत के चरित्र को सदोष होने से भी बचा लिया। इतना ही नहीं, बाहुबली के साथ भरत के भ्रातृत्व-स्नेह को प्रभावकारी बनाकर पाठकों के मन में भरत के प्रति असीम आस्था भी उत्पन्न कर दी। उस कवि का नाम है-रत्नाकरवर्णी। वह कहता है कि ''विविध-युद्धों में पराजित होने पर भरत को अपने भाई बाहुबली के पौरुष पर अत्यन्त गौरव का अनुभव हुआ। अतः उन्होंने बाहुबली की सेवा के निमित्त अपना चक्ररत्न भी भेज दिया ।” निश्चय ही कवि की यह कल्पना साहित्य क्षेत्र में अनुपम है।
इस प्रकार बाहुबली साहित्य के अध्ययन में यह स्पष्ट हो जाता है कि उसके नायक बाहुबली का चरित उत्तरोत्तर विकसित होता गया। तद्विषयक ज्ञात एवं उपलब्ध साहित्य की मात्रा अभी अपूर्ण ही कही जायेगी। क्योंकि अनेक अज्ञात, अपरिचित एवं अव्यवस्थित शास्त्र-भण्डारों में अनेक हस्तलिखित ग्रन्थ पड़े हुए हैं, उनमें अनेक ग्रन्थ बाहुबली चरित सम्बन्धी भी होंगे-जिनकी चर्चा यहाँ सम्भव नहीं। फिर भी जो ज्ञात हैं, उनका समग्र लेखा-जोखा भी एक लघु निबन्ध में सम्भव नहीं हो पा रहा है। अतः यहाँ मात्र ऐसी सामग्री का ही उपयोग किया गया है, जिससे कथानक-विकास पर प्रकाश पड़ सके तथा बाहुबली सम्बन्धी स्थलों एवं अन्य सन्दर्भो का भूगोल, इतिहास, संस्कृति, पुरातत्त्व, समाज, साहित्य एवं दर्शन की दृष्टि से भी अध्ययन किया जा सके ।
मानव-मन की विविध कोटियों को उद्घाटित करने में सक्षम और कवियों की काव्य-प्रतिभा को जागृत करने में समर्थ बाहुबली का जीवन सचमुच ही महान् है। उस महापुरुष को लक्ष्य कर यद्यपि विशाल-साहित्य का प्रणयन किया गया है । किन्तु यह आश्चर्य है कि उस पर अभी तक न तो समीक्षात्मक ग्रन्थ ही लिखा गया और न उच्चस्तरीय शोध-कार्य ही हो सका है। इस प्रकार की शोध-समीक्षा न होने के कारण वीर एवं शान्त रस प्रधान एक विशाल-साहित्य अभी उपेक्षित एवं अपरिचित कोटि में ही किसी प्रकार जी रहा है । यह स्थिति शोचनीय है ।
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