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ऋग्वेद को कुछ सामाजिक-आर्थिक प्रवृत्तियाँ : 72 आदि के लिए देवताओं से प्रार्थनाएँ हैं। भौतिक समद्धि के अर्जन के लिए ही समाज में वीर एवं बहादुर लोगों की आवश्यकता एवं महत्ता भी वर्णित है । उसी तरह सभी प्रकार के धन का विजेता होना भी बड़ा महत्त्वपूर्ण था ।५७ यह प्रवृत्ति लोगों की किसी तरह अधिकाधिक धनार्जन करने की मनोवृत्ति में देखी जा सकती है। यद्यपि पारम्परिक पेशाओं का अपना स्वरूप स्थिर होना शुरू हो गया था, सामान्य लोग विभिन्न योजनाओं से धनार्जन में उसी तरह दत्तचित्त थे, जिस तरह गाय इधर-उधर मनमानी हरियाली चरती है।५८ ऋग्वेद में धन की अति बलवती इच्छाएँ वजित हैं । ५९ साथ ही यह भी स्पष्ट कथित है कि किसी भी धनार्जन में असफल नहीं होना चाहिए६० तथा अपना अत्यन्त साधारण हिस्सा भी नहीं त्यागना चाहिए ।६१ एक स्थान पर ऐसा उल्लेख है कि किसी पिता ने आर्थिक क्षति पहुँचानेवाले अपने पुत्र की आंखें नष्ट कर दीं ।६२ समाज में विभिन्न स्थानों में धन अर्जित करना६३ सामाजिक प्रतिष्ठा के चिह्न के रूप में अंकित है ।६४ केवल अपने लिए ही नहीं, बल्कि अपनी अगली पीढ़ी के लिए भी धन अजित करके छोड़ देना जीवन का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य था ।६५ एक व्यक्ति तो इतना धन चाहता था कि संपन्न सरदारों तथा पुरा हितों को भी उसको देखकर ईर्ष्या का अनुभव हो ।६६ इससे यह आभास होता है कि सरदारों और पुरोहितों में कुछ लोग बहुत अच्छी स्थिति में थे, उनके पास पर्याप्त धन था और धन उस काल में भी समाज में भारी ईर्ष्या का विषय था, क्योंकि धन से व्यक्ति की सुरक्षा थी तथा दुर्दिन में इसका भारी महत्त्व था । तत्कालीन समाज में ऐसी धारणा थी कि देवताओं की पूजा, आराधना से संपत्ति मिलती है और संपत्ति से विपत्ति भागतो है ।६७ स्पष्ट है कि जनजाति-सामूहिकता समाप्त हो गयी थी और निजी संपत्ति की जड़ें गहरी होती जा रही थीं। एक व्यक्ति एक आवास के लिए ६८ तथा पुन: उसको शत्रुओं से मुक्त देखने के लिए भी इन्द्र से प्रार्थना करते देखा गया है ।६६ ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा
५६. ५७. ५८.
५९.
६१.
II. 2.13 II. 23.13 IX. 112.3 II. 13.13, 15, 1, 10; III. 24.5; 30.18-9; VIII. 19.29 II 16.9, 17.9, 20.9 70.6 तुलनीय X. 166.4 VI. 1.13 V. 67.3-4 VI. 1.12 V. 64.4 II. 19.5%3 V. 67.3-4 II. 11.64 VIII. 68.9
६४. ६५.
६७.
६९.
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