________________
88
Vaishali Institute Research Bulletin No. 4 .. संसार-त्याग करते समय भरत ने उनके पुत्र को तक्षशिला का राज्य प्रदान किया । बाहुबली के धारीर की ऊँचाई ५०० धनुष थी। उनकी कुल आयु ८४ लाख पूर्व वर्ष थी।
. संघदासगणि ने अपनी वसुदेवहिण्डो' में बाहुबलिस्स भरहेण सह जुझं दिक्खाणाणुप्पत्तीय नामक प्रकरण में बाहुबली के चरित का अंकन किया है। उसका सारांश इस प्रकार है
दिग्विजय से लौटकर भरत अपने दूत को बाहुबली के पास उनकी राजधानी तक्षशिला में भेजकर उन्हें अपनी सेवा में उपस्थित रहने का सन्देश भेजते हैं। बाहुबली भरत के इस दुर्व्यवहारपूर्ण सन्देश को सुनकर आगवबूला हो उठते हैं। उनके अहंकारपूर्ण इस व्यवहार से ऋद्ध होकर भरत ससैन्य तक्षशिला पर चढ़ाई कर देते हैं। बाहुबली और भरत वहाँ यह निर्णय करते हैं कि उनमें दुष्टियुद्ध एवं मुष्टियुद्ध हो। उन दोनों युद्धों में हारकर भरत बाहुबली पर चक्र से आक्रमण करते हैं। उसे देखकर बाहुबली कहते हैं कि मुझसे पराजित होकर मुझ पर चक्र से आक्रमण करते हो? यह सुनकर भरत कहते हैं कि मैंने चक्र नहीं मारा है । देव ने उस शस्त्र को मेरे हाथ मे फिकवाया है। इसके उत्तर में बाहुबली कहते हैं कि तुम लोकोत्तम पुत्र होकर भी यदि मर्यादा का अतिक्रमण करोगे तो फिर सामान्य व्यक्ति कहाँ जायेंगे ? अथवा इसमें तुम्हारा क्या दोष, क्योंकि विषय-लोलुप होने पर ही तुम ऐसा अनर्थ कर रहे हो। ऐसा विषय लोलुप होकर मैं इस राज्य को लेकर क्या करूंगा ? यह कहकर वे समस्त आरम्भों का त्यागकर योगमुद्रा धारण कर लेते हैं और तपस्या कर कैवल्य-प्राप्ति करते हैं।
वसुदेवहिण्डो का अद्यावधि प्रथमखण्ड ही दो जिल्दों में प्रकाशित है । इनमें से प्रथम जिल्द में ७ लम्भक (अध्याय) हैं। द्वितीय जिल्द में ८ से २८ लम्भक हैं। किन्तु उनमें से १९-२० लम्भक अनुपलब्ध हैं। किन्तु अभी हाल में डा. जगदीशचन्द्र जैन के प्रयत्नों से वे भी मिल चुके हैं। उसके रचयिता श्री संघदासगणि हैं। इनका समय विवादास्पद है किन्तु कुछ विद्वानों का अनुमान है कि उनका समय ६७ सदी के पूर्व का रहा होगा।
धर्मदासगणि ने अपनी उपदेशमाला में "बाहुबलीदृष्टान्त" प्रकरण में बाहुबली १. दे० Agmic Index Vol. I [Prakrit Proper Names] Part II.
Ahmedabad 1970-72. PP. 507-8. २. जैन आत्मानन्दसभा भावनगर (१९३०-३१ ई०) से प्रकाशित । ३. दे० वसुदेवहिण्डी पंचमलम्भक पृ० १८७ । ४. दे० वसुदेवहिण्डी पृ० ३०८ । ५. दे० Proceeding of the A. I. O.C, 28th Session, Karnataka
University, Nov. 1976, Page 104. ६. दे० भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ० १४३ । ७. निर्ग्रन्थ साहित्य प्रकाशन संघ दिल्ली (१९७१ ई०) से प्रकाशित ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org