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ऋग्वेद की कुछ सामाजिक-आर्थिक प्रवृत्तियाँ
81 सके । स्वर्णाभूषण धारण करने के कई उदाहरण मिले हैं । ७९. मरुत की छाती पर स्वर्ण की जंजीर की शोभा का वर्णन है ।८० ऐसा प्रतीत होता है कि कीमती तथा नहीं नष्ट होनेवाली धातुओं का आविष्कार तथा इसकी महत्ता स्थापना ने मूल्यों को संजोकर रखने की एक विधि के रूप में सामाजिक मान्यता प्राप्त कर ली थी, जिसके परिणामस्वरूप समाज में संपन्न लोगों को निजी संपत्ति एकत्र करने में और भी अधिक सुविधा हुई होगी, जिससे विषमता की दरार बढ़ी होगी और सामाजिक तनाव का वातावरण घनीभत हुआ होगा। इसी तरह के सामाजिक वातावरण में विषमता उत्पन्न करनेवाली निजी संपत्ति को ऋग्वेद में ईश्वर की कृपा का फल घोषित किया गया, जिसपर सविस्तार विचार आगे है ।
__ ऋग्वेद में पारिवारिक घर-गृहस्थी स्थायी तौर पर शान्ति एवं भोजनादि की सुविधाओं से परिपूर्ण मानी जाती थी। पत्नी वास्तविक घर का पर्याय मानी जाती थी। सामान्यत: पत्नी अपने पति के लिए अपने को सजा-संवारकर रखती थी। लेकिन भरण-पोषण के साधनों से संपन्न व्यक्ति एक से अधिक पत्नियाँ रखता था। पुरस्कार में वस्तुओं की तरह पत्नियों के भी मिलने की चर्चा है। ४ इन्द्र के विषय में ऋग्वेद में वर्णित है कि उसने सभी किलाओं को ठीक उसी तरह जीत लिया था, जिस तरह कोई पुरुष कई पत्नियों को रखता है । इसके अतिरिक्त, विवाहित पत्नी के उल्लेख६ से यह स्पष्ट है कि उप-पत्नियां रखने की प्रथा थी। दूसरी ओर, किसी सती-साध्वी महिला के द्वारा परपुरुष को देखने में लज्जा का प्रदर्शन करना और ऐसे अवसरों पर सिर झुकाये रखना महिलाओं के मानसिक दलदल में फँसने का संकेतक है। इस क्रम में यह उल्लेखनीय है कि उस समय बेमेल विवाह भी प्रचलित था। बढ़ा व्यक्ति भी कभी-कभी नवयवती पत्नी कर लेता था और उसे नवविवाहित वृद्ध पुरुष की मनोग्रन्थियों का शिकार होना पड़ता था। वह अपनी पत्नी को दूसरे से मिलने नहीं देता था । अन्यथा करने पर वह स्त्री उसके क्रोध का शिकार होती थी। इससे अलग कुछ महिलाओं के सशक्त व्यक्तित्व के कारण परिवार में उन्हीं की बात के लागू होने का जिक्र है ।८९ एक वृद्ध दंपति ने देवता से प्रार्थना की कि
७९. IX. 96.2 ८०. VII. 56.13 ८१. IV. 50.8 ८२. III. 53.4 ८३. IV. 3.2 ८४. VIII. 46.33, तुलनीय, X. 85.14 स्वयंवर एक खेल प्रतियोगिता.
पुरस्कार के रूप में पाणिग्रहण ।
VII. 26.3 ८६. VIII. 82.22 ८७. V. 80.6 ८८. VIII. 2. 19 ८९. V. 61.6
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