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Vaishali Institute Research Bulletin No. 3 पात्र, काल और भाव-इनमें महा शब्द का प्रयोग माना गया है। इसी प्रकार द्रव्य, पात्र
और काल में भाव परिपणा शब्द को निष्पत्ति मान्य हुई है। पुनः प्रत्येक जाणण और • भावक्षण-~-शान और दर्शन के भेव से दो प्रकार की भाव परिणा कही गयी है। मूल गुण
और उत्तर गुण के हिसाब से भाव परिणा दो प्रकार की बतायी गयी है : पाँच प्रकार की मूल गुण से और उत्तर गुण से दो प्रकार की। प्रधान रूप से भाव परिण्णा उक्त क्रम के हिसाब से दो तरह की बतायी गयी। परिणाओं (परिज्ञाओं)-में जो प्रधान हों, वह महापरिण्णा समझी गयीं। देव, मनुष्य और तिर्यक योनि अर्थात् पशु-पक्षी जाति की-तीनों जाति की-स्त्रियों का परित्याग निष्कर्ष रूप से महा परिण्णा (महापरिज्ञा) की नियुक्ति समझना चाहिए।
विचारणीय यह है कि महापरिज्ञा अध्ययन का विवेच्य विषय क्या रहा है ? द्वितीय चूला के सातों उद्देशकों में साधु के लिए उठने-बैठने में सचित्त पदार्थों के स्पर्श एवं आलिंगन का निषेध, मल-मूत्र त्याग करने के लिए अन्वेषणीय स्थानों का वर्णन, वाद्यों की ध्वनि, किस्सा-कहानी, पशु-पक्षी जोड़ों के दृश्य आदि का निषेध है। प्रारंभिक नियुक्ति गाथा ९ के अख़्श से महापरिज्ञा अध्ययन के विषय का संकेत मात्र मिलता है और अन्त की नियुक्ति गाथाओं से विषय की जानकारी होती है। अत: इन दोनों के तारतम्य से हम महापरिज्ञा अध्ययन में वर्णित विषय के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने में समर्थ हो सकते हैं। नियुक्ति गाथा ३८ में, जहाँ ब्रह्मचर्यश्रुतस्कन्ध के विषय को अध्ययन के क्रमानुसार बताया है, वहाँ सप्तम महापरिज्ञा अध्ययन के सम्बन्ध में यह कहा गया है कि उक्त अध्ययन का विषय मोह से उत्पन्न परीषह और उपसर्ग हैं। ये परीषह और उपसर्ग संयमशील साधु को कदाचित् मोह के कारण हों, तो उन्हें सहन करना चाहिए। चूणि एवं टीका ने भी इसका समर्थन किया है । अत: महापरिज्ञा अध्ययन का विषय ब्रह्मचर्य-प्रधान स्पष्टतः प्रतीत होता है। उक्त गाथा की चूणि में आत्मा-जीव के सम्बन्ध में विवेचन करते हुए यह बताया. गया है कि महापरिज्ञा अध्ययन में जीव सद्भाव कहा है, क्यों कि जीव के अभाव में न तो ब्रह्मचर्य होगा और न तपस्या होगी, अतः आत्मा का व्याख्यान प्रथम करना चाहिए। इन वणित आधारों से स्पष्ट है कि आचारांग प्रथमश्रुतस्कन्ध का विषय ब्रह्मचर्य प्रधान है।
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