Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 4
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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. जैन धर्म में अहिंसा और ब्रह्मचर्य
61 आचारांग में राग-द्वेष से बचने के यावतीय प्रसंग, साधु के लिए गहित बताये गये हैं। वीणा, मृदंग आदि वाक्यों की ध्वनि, भैसे, तित्तिर आदि के युद्ध, वर-वधू के लिए विवाह में निर्मित वेदिका-स्थान एवं जहाँ वर-वधुओं का वर्णन किया जाता हो, घोड-धोड़ी आदि के जोड़े जहाँ एकत्र रहते हों या उन्हें गर्भाधान के लिए एकत्र किया जाता हो, कहानी-किस्सों की जगह, जहाँ मान-सम्मान, कलह आदि का वर्णन होता हो, जहाँ आबालवृद्ध-युवा स्त्री-पुरुष वस्त्राभरणों से सज्जित हो गीत-नृत्यादि करते हों या उनका प्रशिक्षण हो रहा हो, जहाँ काठ आदि की बनी मूर्तियाँ, पुप्प, वस्त्रादि प्रस्तुत पुतलियाँ, पत्र आदि से बने चित्र हों, कलाएँ जहाँ सम्पन्न होती हों और आने-जाने के रास्ते में वे दृष्टिगोचर हो रही हों-वहाँ उन-उन जगहों में जाने का और उन्हें सुनने-देखने का साधु के लिए प्रतिबन्ध है।
आचारांग की नियुक्ति गाथाओं में स्पष्ट बताया गया है कि आठ प्रकार के कर्मवृक्षों की जड़ मोहनीय कर्म हैं, जो कामना गुणमूलक हैं और यह संसार तन्मूलक है। कर्ममूलक संसार है और उन कर्मों के मूल कषाय हैं। गौतम के पूछने पर कि किन कारणों से ज्ञानावरणीय कर्मों का बन्धन होता है, उत्तर मिलता है-दो कारणों से-राग या द्वेष मे । गीता में भी स्पष्ट कहा गया है कि प्रत्येक इन्द्रिय के भोगों में राग और द्वेष हैं, उनके वश में न होना चाहिए, क्योंकि ये दोनों कल्याण-मार्ग में विघ्न करनेवाले शत्रु हैं।
मानसिक संतुलन स्थिर रखना संसार के सभी धर्मों का सिद्धान्त है। यह संतुलन रागद्वेष के अभाव में ही स्थिर रह सकता है। राग-द्वेष की उपस्थिति से उत्पन्न होनेवाली बुराइयों का वर्णन यत्र-तत्र आगमों में आया है। जैन साधु अहिंसा के ध्येय की पूर्ति के मार्ग पर ब्रह्मचर्य का सम्बल लेकर चलता है। यही एकमात्र उसका धर्म मार्ग में आध्यात्मिक साधन एवं उपकरण कहा जा सकता है। इस तरह भीतर से राग-द्वेष-रहित हो, मन को संतुलित रख जैन साधु अहिंसा ध्येय को सामने रख, धर्म के पथपर स्वयं धर्मलाभ करता एवं दूसरों को धर्मलाभ देता आगे बढ़ता रहता है । यह कहना अत्यन्त उपयुक्त प्रतीत होता है कि जैन साधु आचार के आध्यात्मिक द्विव्य शरीर की आत्मा ब्रह्मचर्य ही है।
आचारांग के प्रथम भाग को ब्रह्मचर्य-श्रुतस्कन्ध के नाम से अभिहित किया गया है। प्राचीन उल्लेखों से पता चलता है कि मूल आचारांग प्रथमश्रुतस्कन्ध प्रमाण था, द्वितीयश्रुतस्कन्ध बाद में जुड़ा। प्रथमश्रुतस्कन्ध के विषय का ही द्वितीयश्रुतस्कन्ध में विस्तार हुआ है।
आचारांग प्रथमश्रुतस्कन्ध का सप्तम महापरिज्ञा-अध्ययन व्युच्छिन्न है। इसके सम्बन्ध में जो नियुक्ति गाथाएँ प्राप्त हैं, उनमें महापरिण्णा इन दो पदों के अर्थ निक्षेप पूर्वक दिये हैं। वहाँ शब्द का छ: प्रकार का निक्षेप किया गया है। प्रधानतया द्रव्य,
१.
१७७, १७८, १८०।
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