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युक्त्यानुशासन का सर्वोदयतीर्थ
से सर्वथा निश्चित प्रतीति होती है । संकर दोष तो तब होता, जब जिस दृष्टिकोण से स्थिति मानी जाती है, उसी से उत्पाद और व्यय भी माने जाते । लेकिन दोनों की अपेक्षाएँ जुदी - जुदी हैं । व्यतिकर दोष तो परस्पर विषयागमन से होता है । किन्तु जब अपेक्षाएँ निश्चित हैं, धर्मों में भेद है, तो परस्पर विषयागमन का प्रश्न ही नहीं उठता । इस तरह व्यधिकरण दोष भी नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि सभी धर्म एक ही आधार में प्रतीत होते हैं । एक आधार में होने से वे एक नहीं हो सकते, जैसे एक ही आकाश प्रदेश रूप आधार में जीव, पुद्गल आदि षट् द्रव्यों की सत्ता पायी जाती है । फिर अनवस्था दोष का भी प्रसंग नहीं आ सकता, क्योंकि धर्म में अन्य धर्म नहीं माने जाते, बल्कि वस्तु व्ययात्मक मानी जाती है । इसी तरह धर्मों को एकरूप मानने से एक सत्वका प्रसंग नहीं उठना चाहिए, क्योंकि वस्तु अनेकान्तरूप है और सम्यक् एकान्त और अनेकान्त का कोई विरोध नहीं । जिस समय उत्पाद को उत्पाद रूप से अस्ति और व्यय रूप से नास्ति कहेंगे, उस समय उत्पाद धर्म न रहकर धर्मी बन जायगा । धर्म-धर्मी भाव सापेक्ष है । फिर जब वस्तु लोक व्यवहार तथा प्रमाण से निर्वाध प्रतीति का विषय हो रही है, तो उसे अनवधारणात्मक, अव्यवस्थित या अप्रतीत कहना भी गलत है । और जब प्रतीत है, तब अभाव तो हो ही नहीं सकता ।
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आज का युग-धर्म समन्वय है । समन्वय ही सर्वोदय का मूलाधार है । किन्तु जब तक हम वस्तु के स्वरूप पर विचार करने के लिए अनेकांत दृष्टि नहीं रख पायेंगे, इस समन्वय की दिशा में आगे भी नहीं बढ़ पायेंगे । भारतीय संस्कृति ही समन्वय की संस्कृति है । यही विश्व को भारतीय संस्कृति की देन है । जाति, धर्म, भाषा, सम्प्रदाय आदि की विविधताओं के बीच भारतीय मनीषियों ने समन्वय किया है । समन्वय का एक ही विकल्प है - संघर्ष और संघर्ष का परिणाम सत्यानाश है । अतः जिसे स्वामी समन्तभद्र ने 'सर्वोदय तीर्थ' कहा है, उसे हम 'समन्वय तीर्थ' भी कह सकते हैं ।
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