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Vaishali Institute Research Bulletin No. 4
में
प्रकाशित करने के कारण प्रमाण मानी जा सकें - यही अमेकान्त दृष्टि है । इस समन्वय विचार के बल पर यह समझाया गया है कि सद्-द्वैत और सद्-अद्वैत के बीच कोई विरोध नहीं, क्योंकि वस्तु का पूर्णरूप ही अभेद और भेद, या सामान्य और विशेषास्मक ही है । एक मात्र सामान्य के समय " सत्" का अर्थ अद्वैत है, किन्तु जब विश्व को गुणधर्म कृत भेदों में विभाजित किया जाता है तो वह अनेक है, जिसे हम सद्-द्वैत कह सकते हैं । वन और वृक्ष को भी हम इसी तरह समझ सकते हैं। यानी काल, देश, तथा देश कालातीत सामान्य विशेष के उपर्युक्त अद्वैत द्वैत से आगे बढ़कर कालिक सामान्य-विशेष के सूचक नित्यत्ववाद और क्षणिकवाद भी हैं। भले दोनों में बाहर से विरोध मालूम पड़ते हैं, लेकिन हैं नहीं । जब हम किसी तत्वको तीनों कालों अखंड रूप से अनादि-अनन्त रूप से देखेंगे तो अखंड प्रवाह में आदि अंत रहित होने से नित्य होगा, परन्तु उसे जब काल पर्यन्त स्थायी ऐसा परिमित रूप ही नजर आता है, तं सादि और सांत है, और विवक्षित काल जब बहुत छोटा होता है, तो वह क्षण के बराबर होने से क्षणिक कहलाता है । कोई वृक्ष का जीवन- व्यापार मूल से लेकर फल तक में कालक्रम से होनेवाली बीज, अंकुर, स्कन्ध, शाखा प्रतिशाखा पत्र, पुष्प से लेकर फल आदि विविध अवस्थाओं में होकर ही प्रवाहित और पूर्ण होता है । उसी वृक्ष को हम अखंड रूप से या खंड रूप से समझ सकते हैं और दोनों ही सत्य एवं यथार्थ हैं । अतः एक मात्र नित्यत्व या अनित्यत्व को वास्तविक कहकर दूसरे विरोधी अंश को अवास्तविक कहना ही नित्य-अनित्यवादों की टक्कर का बीज है, जिसे अनेकान्त दृष्टि हटाती है । इसी तरह अनेकांत दृष्टि अनिर्वचनीयत्व और निर्वचनीयत्व वाद की पारस्परिक टक्कर को भी मिटाती है । इसी तरह भावरूपता, और अभावरूपता, हेतुवाद - अहेतुवाद, सत्कार्यवाद और असत्कार्यवाद, परमाणुवाद, पुंजवाद और अपूर्यावयवीवाद आदि बाहयरूप से विरोधी विचारों के विरोधों का भी परिहार किया जा सकता है ।
इस प्रकार निर्दोष समन्वय मध् स्वभाव से होता है और इसके लिए ही अनेकान्तवाद के आसपास नयवाद और भंगवाद आप ही आप फलित हो जाते हैं । केवलज्ञान को उपयोगी मानकर उसके आश्रय से प्रवृत्त होनेवाली विचारधारा का नाम ज्ञान- नय है और केवल क्रिया के आश्रय से प्रवृत्त होनेवाली विचारधारा क्रिया-नय है । नय अनेक और अपरिमित हैं, अतः विश्व का पूर्णदर्शन - अनेकान्त भी निस्सीम है । इसी तरह भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं, दृष्टिकोणों या मनोवृत्तियों से जो एक ही तत्व के नाना दर्शन फलित होते हैं, उन्हीं के आधार पर भंगवाद की सृष्टि खड़ी होती है । दो दीख पड़नेवाली विरोधी विचारधाराओं का इससे समन्वय किया जाता है । सप्तभंगी का आधार नयवाद किन्तु ध्येय समन्वय अर्थात् अनेकान्त कोटि का व्यापक दर्शन सर्वांश सत्य को अपनाने की भावना को हम इनकार नहीं कर सकते हैं ।
कराना है । किन्तु अखंड और सजीव
अनेकांतवाद भले ही जैनों के नाम से चलता है, लेकिन यह भावना अनेक जगहों में आदर एवं श्रद्धा ही नहीं, बल्कि बुद्धि और तर्क से भी अपनायी गयी है। ऋग्वेद में "एक
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